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भगवान चन्द्रप्रभ
(चिन्ह-चन्द्र)
तीर्थंकर- परम्परा में आठवाँ स्थान भगवान चन्द्रप्रभ स्वामी का है। लगभग 1 लाख पूर्व वर्ष की सुदीर्घ अवधि तक केवल पर्याय रूप में प्रभु ने लक्ष-लक्ष जीवों को सन्मार्ग पर लगाकर उनके कल्याण की महती भूमिका पूरी की थी।
पूर्व जन्म
भगवान चन्द्रप्रभ स्वामी ने अपने तीर्थंकरत्व युक्त जीवन में जो महान् और शुभ कर्म किए, जिन सफलताओं और महान् उपलब्धियों के वे स्वामी बने—उसके पीछे उनके पूर्व-जन्म के सुपुष्ट श्रेष्ठ संस्कारों का ही प्रभाव था। यहाँ उनके अन्तिम पूर्व-जीवन का चित्रण इस तथ्य की सत्यता को प्रतिपादित करते हेतु चित्रित किया जा रहा है।
प्राचीनकाल में धातकीखण्ड में रत्नसंचया नगरी नामक एक राज्य था। चन्द्रप्रभ स्वामी पूर्व-जन्म में इसी राज्य के राजा महाराज पद्म थे। राजा पद्म उच्चकोटि के योग साधक थे। इस सतत् साधना के प्रभावस्वरूप पद्म राजा के चित्त में विरक्ति उत्पन्न होने लगी और वे संसार त्यागकर साधक-जीवन व्यतीत करने और आत्म-कल्याण करने की उत्कट अभिलाषा से वे अभिभूत रहने लगे। ऐसी ही मानसिक दशा के सुसमय में संयोग से उन्हें युगन्धर मुनि के दर्शन करने का अवसर प्राप्त हुआ। मुनिश्री के सदुपदेशों से उनका जागृत मन और भी उद्दीप्त हो उठा और मुनि युगंधर के आश्रय में ही राजा ने संयम ग्रहण कर लिया। तत्पश्चात उन्होंने कठोर तप किए और बीस स्थानों की आराधना की। परिणामस्वरूप उन्हें तीर्थंकर नामकर्म का लाभ हुआ। चारित्र-धर्म के दृढ़तापूर्वक पालन और अन्य विशिष्ट उपलब्धियों के साथ जीवन व्यतीत करते हुए जब उन्हें अपना अन्त समय समीप अनुभव हुआ तो उन्होंने और भी आराधनाएँ की और कालधर्म प्राप्त किया। देहावसान पर वे विजय विमान में अहमिन्द्र देव बने।
जन्म-वंश
पद्म राजा का जीव अहमिन्द्र की स्थिति समाप्त कर जब विजय विमान से च्युत हुआ, तो उसने महारानी लक्ष्मणा के गर्भ में स्थान पाया। यह प्रसंग चैत्र कृष्णा पंचमी का
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