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भगवान सुपार्श्वनाथ
(चिन्ह-स्वस्तिक)
भगवान पद्मप्रभजी के पश्चात् दीर्घकाल तीर्थंकर से शून्य रहा और तदनन्तर सातवें तीर्थंकर भगवान सुपार्श्वनाथ का अवतरण हुआ। प्रभु ने चुतर्विध तीर्थ स्थापित कर भाव अरिहन्त पद प्राप्त किया और जनकल्याण का व्यापक अभियान चलाया था।
पूर्वजन्म
क्षेमपुरी के अत्यन्त योग्य शासक थे-महाराज नन्दिसेन। महाराज प्रजाहित के साथ ही साथ आत्महित में भी सदा सचेष्ट रहा करते थे। इस दिशा में उनकी एक सुनिश्चित योजना थी, जिसके अनुसार न्यायपूर्वक शासन-संचालन करने के पश्चात् एक दिन उन्होंने आचार्य अरिदमन के आश्रय में संयम ग्रहण कर लिया। अपने साधक जीवन में उन्होंने अत्यन्त कठोर तप और अचल साधना की। त्याग की प्रवृत्ति में तो वे अद्वितीय ही थे। नन्दिसेन ने 20 स्थानों की आराधना की और तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन कर लिया। अन्तत: कालधर्म की प्राप्ति के साथ आपको अहिमन्द्र के रूप में छठे ग्रैवेयक में स्थान उपलब्ध हुआ।
जन्म-वंश
ग्रैवेयक से च्यवनानन्तर वाराणसी में रानी पृथ्वी के गर्भ में नन्दिसेन के जीवन ने पुन: मनुष्य-जन्म ग्रहण किया। इनके पिता का नाम प्रतिष्ठसेन था। गर्भ धारण की शुभ घड़ी भाद्रपद कृष्णा अष्टमी को विशाखा नक्षत्र में आयी थी। उसी रात्रि को महारानी ने 14 दिव्य शुभस्वप्नों का दर्शन किया, जो महापुरुष के आगमन के द्योतक समझे जाते हैं। पृथ्वीरानी ने एक श्वेत हाथी देखा जो उसके मुख की ओर अग्रसर हो रहा था, अपनी ओर आते हुए श्वेत- स्वस्थ बैल का दर्शन किया। इसके अतिरिक्त रानी ने निडर और पराक्रमी सिंह, कमल-आसन पर आसीन लक्ष्मीजी, सुरभित पुष्पहार, शुभ्र चन्द्रमा, प्रचण्ड सूर्यदेव, उच्च पताका, सजल स्वर्ण कलश, लाल- श्वेत कमल पुष्पों से भरा सरोवर, क्षीरसागर, रत्न-जटित देव-विमान, मूल्यवान रत्न-समूह, प्रखर आलोकपूर्ण दीपशिखा से युक्त स्वप्नों के दर्शन से रानी अचकचा गयी और निद्रामुक्त होकर उन पर विचार करने में लीन हो गयी। महाराज्ञ
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