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चौबीस तीर्थंकर
दीक्षा व केवलज्ञान
इस प्रकार सदाचारपूर्वक और पुण्यकर्म करते हुए एवं गृहस्थधर्म और राजधर्म की पालना करते हुए अशुभकर्मों का क्षय हो जाने पर प्रभु मोक्ष लक्ष्य की ओर उन्मुख व गतिशील हुए। वर्षीदान सम्पन्न कर षष्ठभक्त (दो दिन के निर्जल तप) के साथ उन्होंने दीक्षा प्राप्त कर ली। वह कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी का दिन था। आपके साथ अन्य 1000 पुरुषों ने भी दीक्षा ग्रहण की थी। ब्रह्म-स्थल में वहाँ के भूपति सोमदेव के यहाँ प्रभु का प्रथम पारणा हुआ।
अब प्रभु सतत् साधना में व्यस्त रहने लगे। अशुभ कर्मों का अधिकांश प्रभाव पहले ही क्षीण हो चुका था। माया-मोह को वे परास्त कर चुके थे। अवशिष्ट कर्मों का क्षय करने के लिए अपेक्षाकृत अत्यल्प साधना की आवश्यकता रही थी। षष्ठ-भक्त तप के साथ, शुक्लध्यानस्थ होकर प्रभु ने घातिकर्मों को समूल नष्ट कर दिया और इस प्रकार चित्रा नक्षत्र की घड़ी में चैत्र सुदी पूर्णिमा को केवलज्ञान भी आपने प्राप्त कर लिया।
प्रथम देशना
___ केवली होकर प्रभु पद्मप्रभ स्वामी ने धर्मदेशना दी। इस आदि देशना में प्रभु ने आवागमन के चक्र और चौरासी लाख योनियों का विवेचन किया, जिनमें निज कर्मानुसार आत्मा को भटकते रहना पड़ता है। नरक की घोर पीड़ादायक यातनाओं का वर्णन करते हुए प्रभु ने बताया कि आत्मा को बार-बार इन्हें झेलना पड़ता है। मानव-जीवन के अतिरिक्त अन्य योनियों में तो आत्मा के लिए कष्ट का कोई पार ही नहीं है, और इस मनुष्य जीवन में भी सुख कितना अल्प और अवास्तविक है। ये मात्र काल्पनिक सुख भी असमाप्य नहीं होते और इसके पश्चात् आने वाले दुःख बड़े दारुण और उत्पीड़क होते हैं। सामान्यत: इन्हीं असार सुखों को मनुष्य जीवन का सर्वस्व मानकर उन्हीं की साधना में समग्र जीवन ही व्यर्थ कर देता है। वह सदा अन्यान्यों के वश में रहता है। विभिन्न आशाओं के साथ सभी ओर ताकता रहता है, किन्तु अपने अन्तर में वह नहीं झाँक पाता। आत्मलीन हो जाने पर ही मनुष्य को अपार शान्ति और अनन्त सुखराशि उपलब्ध हो सकती है।
अपार ज्ञानपूर्ण एवं मंगलकारी धर्म देशना देकर पद्मप्रभ स्वामी ने चतुर्विध धर्मसंघ स्थापित किया। अनन्तज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य इस अनंत चतुष्टय के स्वामी होकर प्रभु लोकज्ञ, लोकदर्शी और भावतीर्थ हो गए।
परिनिर्वाण
जीव और जगत् के कल्याण के लिए वर्षों तक प्रभु ने जन-मानस को अनुकूल बनाया, इसके लिए सन्मार्ग की शिक्षा दी और 30 लाख पूर्व वर्ष की आयु में प्रभु सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए। आपको दुर्लभ निर्वाण पद की प्राप्ति हो गई।
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