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भगवान श्री पद्मप्रभ
से सुशोभित था और उनकी रानी का नाम सुसीमा था। माघ कृष्णा षष्ठी का दिन और चित्रा नक्षत्र की घड़ी थी, जब अपराजित का जीव माता सुसीमा रानी के गर्भ में स्थित हुआ था। उसी रात्रि को रानी ने चौदह महाशुभकारी स्वप्नों का दर्शन किया। रानी ने इसकी चर्चा राजा से की। स्वप्नों के सुपरिणामों के विश्वास के कारण दोनों को अत्यन्त हर्ष हुआ। रानी को यह कल्पना अत्यन्त सुखद लगी कि वह महान भाग्यशालिनी माता होगी। स्वयं महाराज धर रानी को श्रद्धापूर्वक नमन किया और कहा कि इस महिमा के कारण देव - देवेन्द्र भी तुम्हें नमन करेंगे।
माता ने आदर्श आचरणों के साथ गर्भ अवधि व्यतीत की। वह दान-पुण्य करती रही, क्षमा का व्यवहार किया और चित्त को यत्नपूर्वक सानन्द रखा । उचित समय आने पर रानी सुसीमा ने पुत्र रत्न को जन्म दिया जो परम तेजोमय और पद्म (कमल) की प्रभा जैसी शारीरिक कान्ति वाला था। कहा जाता है कि शिशु के शरीर से स्वेद - गंध के स्थान पर भी कमल की सुरभि प्रसारित होती थी । इस अनुपम रूपवान, मृदुल और सुवासित गात्र शिशु को स्पर्श करने, उसकी सेवा करने का लोभ देवागनाएँ भी संवरण न कर पाती थीं और वे दासियों के रूप में राजभवन में आती थीं । ऐसी स्थिति में युवराज का नाम 'पद्मप्रभ' रखा जाना स्वाभाविक ही था । नामकरण के आधारस्वरूप एक और भी प्रसङ्ग की चर्चा आती है । कि जब वे गर्भ में थे, तब माता को पद्मशैया पर शयन करने की तीव्र अभिलाषा हुई थी ।
गृहस्थ जीवन
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कुमार पद्मप्रभ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए बाल्यावस्था का आँगन पार कर यौवन के द्वार पर आए। अब तक वे पर्याप्त बलवान और शौर्य सम्पन्न हो गए थे। वे पराक्रमशीलता में किसी भी प्रकार कम नहीं थे, किन्तु मन से वे पूर्णत: अहिंसावादी थे । निरीह प्राणियों के लिए उनकी शक्ति कभी भी आतंक का कारण नहीं बनी। उनके मृदुलगात्र में मृदुल मन ही निवास था। सांसारिक माया मोह, सुख-वैभव सभी से वे पूर्ण तटस्थ, आत्मोन्मुखी थे। आन्तरिक विरक्ति के साथ-साथ कर्त्तव्यपरायणता का दृढभाव भी उनमें था। यही कारण है कि माता-पिता के आदेश से उन्होंने विवाह बन्धन भी स्वीकार किया और उत्तराधिकार में प्राप्त राज्यसत्ता का भोग भी किया। प्रागैतिहासकारों का मत है कि 21 लाख पूर्व वर्षों तक नीति- कौशल, उदारता और न्यायशीलता के साथ उन्होंने शासन - सूत्र सँभाला। सांसारिक दृष्टि में इन विषयों की चाहे कितनी ही महिमा क्यों न हो, किन्तु प्रभु इसे तुच्छ समझते थे और महान् मानव जीवन के लिए ऐसी उपलब्धियों को हेय मानते थे। इन्हें उन्होंने जीवन का लक्ष्य कभी नहीं माना। जीवन रूपी यात्रा में आए
विश्राम स्थल के समान वे इस सत्ता के स्वामित्व को मानते थे । यात्री को तो अभी और
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आगे बढ़ना है। और वह समय भी शीघ्र आ पहुँचा जब उन्होंने यात्रा के शेषांग को पूर्ण करने की तैयारी कर ली। महाराज ने संयम और साधना का मार्ग अपना लिया। समस्त सांसारिक सुख, अधिकार - सम्पन्नता, वैभव, स्वजन - परिजन आदि की ममता से वे ऊपर
उठ गए।
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