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भगवान श्री पद्मप्रभ
(चिन्ह-पद्म)
भगवान पद्ममप्रभ स्वामी छठे तीर्थंकर माने जाते हैं। तीर्थंकरत्व की योग्यता अन्य तीर्थकरों की भाँति ही प्रभु पद्मप्रभ ने भी अपने पूर्व-भव में ही उपार्जित कर ली थी। वे पद्य अर्थत् कमलवत् गुणों से सम्पन्न थे।
पूर्वजन्म
प्राचीनकाल में सुसीमा नगरी नामक एक राज्य था। वहाँ के शासक थे महाराज अपराजित। धर्माचरण की दृढ़ता के लिए राजा की ख्याति दूर-दूर तक व्याप्त थी। परम न्यायशीलतता के साथ अपनी सन्तति की भाँति वे प्रजापालन किया करते थे। उच्च मानवीय गुणों को ही वे वास्तविक सम्पत्ति मानते थे और वे इस रूप में परम धनाढ्य थे। वे देहधारी साक्षात् धर्म से प्रतीत होते थे। सांसारिक वैभव व भौतिक सुख-सुविधाओं को वे अस्थिर मानते थे। इसका निश्चय भी उन्हें हो गया था कि मेरे साथ ही इनका संग सदा-सदा का नहीं है। इस तथ्य को हृदयंगम कर उन्होंने भावी कष्टों की कल्पना को ही निर्मूल कर देने की योजना पर विचार प्रारम्भ किया। उन्होंने दृढ़तापूर्वक यह निश्चय कर लिया कि मैं ही आत्मबल की वृद्धि कर लूँ। पूर्व इसके कि ये बाह्य सुखोपकरण मुझे अकेला छोड़कर चले जाएँ, मैं ही स्वेच्छा से इन सबका त्याग कर दूँ। यह संकल्प उत्तरोत्तर प्रबल होता ही जा रहा था कि उन्हें विरक्ति की अति सशक्त प्रेरणा अन्य दिशा से और मिल गई। उन्हें मुनि पिहिताश्रव के दर्शन करने और उनके उपदेशामृत का पान करने का सुयोग मिला। राजा को मुनि का चरणाश्रय प्राप्त हो गया। महाराज अपराजित ने मुनि के आशीर्वाद के साथ संयम स्वीकार कर अपना साधक-जीवन प्रारम्भ किया। उन्हेंने अर्हत् भक्ति आदि अनेक आराधनाएँ की और तीर्थंकर नामकर्म उपार्जित कर आयु समाप्ति पर 31 सागर की परमस्थिति युक्त ग्रैवेयक देव बनने का सौभाग्य प्राप्त किया।
जन्म-वंश
यही पुण्यशाली अपराजित मुनि का जीव देवयोनि की अवधि पूर्ण हो जाने पर कौशाम्बी के राजकुमार के रूप में जन्मा। उन दिनों कौशाम्बी का राज्यासन महाराज ध.
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