SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान सुमतिनाथ 31 पंचमुष्टि लोचकर सर्वथा विरागोन्मुख हो गए, मुनि बन गए। दीक्षाग्रहण के इस पवित्र अवसर पर आप षष्ठ-भक्त दो दिन के निर्जल तप में थे। आपने प्रथम पारणा विजयपुर में वहाँ के महाराज पद्म के यहाँ किया। यहाँ से उनके जीवन में साधना का जो अटूट क्रम प्रारम्भ हुआ, वह सतत् रूप से 20 वर्षों तक चलता रहा और उत्तरोत्तर उत्कर्ष प्राप्त करता रहा। साथ-ही-साथ मुनि का आत्मा भी उत्थान प्राप्त करता चला। वे इस दीर्घ अवधि में छद्मअवस्था में विचरणशील रहे। भगवान ने अन्त में धर्मध्यान व शुक्लध्यान से कर्म-निर्जरा की और सहस्राभ्रवन में चार घाती कर्मों का शमन कर चैत्र शुक्ला एकादशी को मघा नक्षत्र को श्रेष्ठ घड़ी में केवलज्ञान एवं केवलदर्शन प्राप्त कर लिया। प्रथम देशना प्रभु ने इस प्रकार केवली होकर धर्मदेशना दी। उनके उपदेशामृत से लाभान्वित होने के अभिलाषी देव, दनुज, मनुज, भारी संख्या में एकत्रित हुए। प्रभु ने विशेषत: मोक्ष-मार्ग को अलोकित किया। चतुर्विध संघ की स्थापना द्वारा आप भाव तीर्थंकर की प्रतिष्ठा से भी सम्पन्न हुए। परिनिर्वाण ___40 लाख वर्ष पूर्व का आयुष्य पूर्ण कर प्रभु सुमतिनाथ को अपने जीवन के अन्तिम समय की समीपता का आभास होने लगा। एक माह पूर्व से ही प्रभु ने अनशन व्रत धारण कर लिया। जब प्रभु शैलेशी अवस्था में पूर्ण अयोग दशा में पहुंच गए, तभी चैत्र शुक्ला नवमी को पुनर्वसु नक्षत्र में उन्हें निर्वाण पद की प्राप्ति हो गयी। वे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए। धर्म परिवार 100 गणधर केवली मन:पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी चौदह पूर्वधारी वैक्रियलब्धिधारी वादी साधु साध्वी श्रावक श्राविका 13,000 10,450 11,000 2,400 18,400 10,650 3,20,000 5,30,000 2,81,000 5,16,000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy