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________________ 30 चौबीस तीर्थंकर की दो पत्नियाँ थीं उनमें से एक को पुत्र-प्राप्ति हुई थी। ये दोनों सपत्नियाँ और पुत्र घर पर रहते थे और सेठ व्यवसाय के सम्बन्ध में प्रवास पर रहा करता था। विमाता भी पुत्र के साथ बड़ा मृदुल, स्नेह भरा व्यवहार रखती थी। दुर्भाग्यवश विदेश में ही सेठ की मृत्यु हो गयी। अपने पति की सारी सम्पत्ति पर अधिकार करने के लोभ में विमाता ने पुत्र को अपना ही पुत्र घोषित कर दिया और वास्तविक माता को विमाता बताने लगी। दोनों माताओं में इस प्रश्न पर बहुत कलह हुआ और वे न्याय हेतु महाराजा मेघ के दरबार में आई। इस विचित्र पहेली से सारा दरबार दंग रह गया। किसका दावा सही और किसका मिथ्या-यह ज्ञात करने का कोई मार्ग नहीं दिखायी पड़ता था। अन्तत: रानी मंगलावती ने इस गम्भीर प्रसंग को अपने हाथ में ले लिया रानी ने दोनों दावेदारों माताओं को कहा कि अभी इस बालक को तुम मेरे पास छोड़ जाओ। मेरे गर्भ में एक अत्यन्त ज्ञानवान बालक है। जन्म लेकर वही इस प्रश्न पर निर्णय देगा। तुम्हें कुछ काल प्रतीक्षा करनी होगी। तब तक तुम्हारा बालक मेरे पास रहेगा। उसे कोई कष्ट नहीं होगा। रानी तो इस पर इन महिलाओं की प्रतिक्रिया ज्ञात करना चाहती थी। विमता ने रानी के इस प्रस्ताव पर कोई आपत्ति नहीं की। वह तो जानती थी कि कुछ ही समय की तो बात है। बालक मेरे पास नहीं भी रहे तो क्या है? फिर तो मुझे सारा अधिकार मिल ही जायगा किन्तु बालक की जननी रोने-गिड़गिड़ाने लगी। कहने लगी कि नहीं रानी जी मुझे मेरे बालक से पृथक मत कीजिए। मैं इसके बिना एक पल भी नहीं रह सकती। रानी ने पहचान लिया कि इसे लोभ नहीं है। सम्पत्ति का अधिकार मिले या न मिले, किन्तु यह अपने पुत्र को नहीं छोड़ सकती। इस मनोवैज्ञानिक बिन्दु को कसौटी मानकर रानी मंगलावती ने निर्णय दे दिया। सभी को रानी की इस अद्भुत बुद्धि-क्षमता पर आश्चर्य हुआ। ऐसे-ऐसे अनेक प्रसंग आए जिसमें रानी ने अपने विकसित बुद्धि-वैभव का परिचय दिया। यह विकास रानी के गर्भ में इस राजकुमार के अस्तित्व का प्रतिफल था। अत: नवजात राजकुमार को 'सुमतिनाथ' नाम दिया। गृहस्थ-जीवन उचित वय-प्राप्ति पर महाराजा मेघ ने योग्य व सुन्दर कन्याओं के साथ कुमार सुमतिनाथ का विवाह कराया और वार्धक्य के आगमन पर कुमार को सिंहासनारूढ़ कर स्वयं विरक्त हो गए। राजा सुमतिनाथ ने अत्यन्त न्याय- बुद्धि के साथ उनतीस लाख पूर्व और बारह पूर्वांग वर्षों तक शासन-सूत्र संभाला। पूर्व संस्कारों के प्रभाव-स्वरूप उपयुक्त समय पर राजा के मन में विरक्ति का भाव प्रगाढ़ होने लगा और वे भोग कर्मों की समाप्ति पर संयम अंगीकार करने को तैयार हुए। दीक्षा-ग्रहण : केवलज्ञान __ संयम का संकल्प दृढ़ होता गया और राजा सुमतिनाथ ने श्रद्धापूर्वक वर्षीदान किया। वे स्वयं प्रबुद्ध हुए और वैशाख शुक्ला नवमी को मघा नक्षत्र के शुभ योग में राजा सुमतिनाथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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