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भगवान सुमतिनाथ
दमन कर लिया था। पुरुषसिंह पराक्रमी तो था, किन्तु इस उपलब्धि हेतु उसका जन्म नहीं हुआ था। उसे तो मोक्ष-प्राप्ति के पवित्र साधन के रूप में जीवन को प्रयुक्त करना था। इसका सुयोग भी उसे शीघ्र ही मिल गया। राजकुमार वन-भ्रमण के लिए गया हुआ था। घने वन में उसने एक मुनि आचार्य विनय नन्दन को तप में लीन देखा। उसके जिज्ञासु मन ने उसे उत्साहित किया। परिणामत: राजकुमार पुरुषसिंह ने मुनि से उनका धर्म, तप का प्रयोजन आदि प्रकट करने का निवेदन किया। मुनि ने राजकुमार को जब धर्म का तत्व-बोध कराया तो राजकुमार के संस्कार जागृत हो गए। वह प्रबुद्ध हो गया। विरक्ति का भाव उसके चित्त में अंगड़ाइयाँ लेने लगा। उसके मन में संसार त्याग कर दीक्षा ग्रहण कर लेने की अभिलाषा क्षण-क्षण में प्रबल से प्रबलतर होने लगी। दीक्षा के लिए उसने माता-पिता से जब अनुमति की याचना की तो पुत्र की इस अभिलाषा का ज्ञान होने से ही माता हत्चेत हो गयी। ममता का यह दृढभाव भी प्रबल निश्चयी राजकुमार को विचलित नहीं कर पाया। अन्तत: माता-पिता को दीक्षार्थ अपनी अनुमति देनी ही पड़ी।
दीक्षोपरान्त पुरुषसिंह ने घोर तप किया। क्षमा, समता, नि:स्वार्थता आदि श्रेष्ठ आदर्शों को उसने अपने जीवन में ढाला और 20 स्थानों की आराधना की। फलस्वरूप उसने तीर्थंकर-नामकर्म उपार्जित कर लिया और मरणोपरान्त ऋद्धिशाली देव बना। वह वैजयन्त नाम के अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुआ।
जन्म-वंश
. जब जयन्त विमान की स्थिति समापन पर आ रही थी, उस काल में अयोध्या के राजा महाराज मेघ थे, जिनकी धर्मपरायणा पत्नी का नाम मंगलावती था। वैजयन्त विमान से च्युत होकर पुरुषसिंह का जीव इसी महारानी के गर्भ में स्थित हुआ। महापुरुषों की माताओं की भाँति ही महारानी मंगलावती ने भी 14 शुभ महास्वप्नों का दर्शन किया और वैशाख शुक्ला अष्टमी की मध्यरात्रि को पुत्रश्रेष्ठ को जन्म दिया। जन्म के समय मघा नक्षत्र का शुभ योग था। माता-पिता और राजवंश ही नहीं सारी प्रजा राजकुमार के जन्म से प्रमुदित हो गयी। हर्षातिरेकवश महाराज मेघ ने समस्त प्रजाजन के लिए 10 दिवसीय अवधि तक आमोद-प्रमोद की व्यवस्था की।
नामकरण
प्रभु सुमतिनाथ के नामकरण का भी एक रहस्य है। पुत्र के गर्भ में आने के पश्चात् महारानी मंगलावती का बुद्धि-वैभव निरन्तर विकसित होता चला गया और उसने महाराजा के काम-काज में हाथ बँटाना आरम्भ कर दिया। ऐसी-ऐसी विकट समस्याओं को रानी ने सुलझा दिया जो विगत दीर्घकाल से जटिल से जटिलतर होती जा रही थीं। विचित्र-विचित्र समस्याओं को रानी सुगमता से हल कर देती। ऐसा ही एक प्रसंग प्रसिद्ध है कि किसी सेठ
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