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भगवान सुमतिनाथ
(चिन्ह-क्रौंच पक्षी)
चौबीस तीर्थंकरों के क्रम में पंचम स्थान भगवान सुमतिनाथ का है। आपके द्वारा तीर्थंकरत्व की प्राप्ति और जीवन की उच्चाशयता का आधार भी पूर्व के जन्म-जन्मान्तरों के सुसंस्कारों का परिणाम ही था। इस श्रेष्ठत्व की झलक आगामी पंक्तियों में स्पष्टत: आभासित होती है।
पूर्वभव
शंखपुर नगर के राजा विजयसेन अपनी न्यायप्रियता एवं प्रजावत्सलता के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी प्रियतमा पत्नी महारानी सुदर्शना भी सर्वसुलक्षण-सम्पन्न थी। रानी को अपार सुख-वैभव और ऐश्वर्य तो प्राप्त था किन्तु खटका इसी बात का था कि वह निःसन्तान थी। प्रतिपल वह इसी कारण दुःखी रहा करती। एक समय का प्रसंग है कि नगर में वसन्तोत्सव मनाया जा रहा था। आबाल-वृद्ध नर-नारी सभी उद्यान में एकत्रित थे। सुन्दर नृत्य और आमोद-प्रमोद में मग्न थे। नरेश के लिए विशेषत: निर्धारित भवन पर से राजा और रानी भी इन क्रीड़ाओं और प्राकृतिक छटा का अवलोकन कर आनन्दित हो रहे थे। रानी सुदर्शना ने इसी समय एक ऐसा दृश्य देखा जिसने उसके मन में सोयी हुई पीड़ा को जागृत और उद्दीप्त कर दिया। रानी ने देखा, अनुपम रूपवती एक प्रौढ़ा आसन पर बैठी है और उसकी आठ पुत्र-वधुएँ नाना प्रकार से उसकी सेवा कर रही हैं। श्रेष्ठीराज नन्दीषेण की गृहलक्ष्मी के इस सौभाग्य को देखकर रानी कुंठित हो गयी। वह उद्यान से अनमनी-सी राजभवन लौट आयी। कोमलता के साथ राजा ने जब कारण पूछा, तो रानी ने सारी कष्ट- कथा कह दी। राजा पहले ही पुत्र-प्राप्ति के लिए जितने उपाय हो सकते थे, वे सब करके परास्त हो चुका था, तथापि निराश रानी को उसने वचन दिया कि वह इसके लिए कोई कोर कसर उठा नहीं रखेगा। वह वास्तव में पुन: सचेष्ट भी हो गया और राजा-रानी का भाग्य परिवर्तित हुआ। यथासमय रानी सुदर्शना ने पुत्ररत्न को जन्म दिया। रानी ने स्वप्न में सिंह देखा था-इसे आधार मानकर पुत्र का नाम पुरुषसिंह रखा गया। पुरुषसिंह अतीव पराक्रमशील, शैर्य- सम्पन्न और तेजस्वी कुमार था। उसके इन गुणों का परिचय इस तथ्य से हो जाता है कि युवावस्था प्राप्त होने तक ही उसने अनेक युद्ध कर समस्त शत्रुओं का
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