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________________ भगवान अभिनन्दननाथ भगवान अभिनन्दन स्वामी की देशना अति महत्त्वपूर्ण एवं स्मरणीय समझी जाती है, जो युग-युग तक आत्मकल्याणार्थियों का मार्ग प्रकाशित करती रहेगी। भगवान ने अपनी देशना में स्पष्ट किया था कि यह आत्मा सर्वथा एकाकी है, न कोई इसका मित्र है, न सहचर और न ही कोई इसका स्वामी है। ऐसी अशरण अवस्था में ही निज कर्मानुसार सुखदुःख का भोग करता रहता है। जितने भी जागतिक सम्बन्धी हैं-माता, पिता, पतनी, पुत्र, सखा, भाई आदि कोई भी कर्मों के फल भोगने में साझीदार नहीं हो सकता। भला-बुरा सब कुछ अकेले उसी आत्मा को प्राप्त होता है। कष्ट और पीड़ाओं से कोई उसका त्राण नहीं कर सकता। कोई उसके जरा, रोग और मरण को टाल नहीं सकता। मात्र धर्म ही उसका रक्षक-संरक्षक होता है। धर्माचारी स्वयं इन कष्टों से मुक्त रहने की आश्वस्तता का अनुभव कर पाता है। ___ इस परम मंगलकारी देशना से प्रेरित, प्रभावित और सज्ञान होकर लाखों नर-नारियों ने मुनि-जीवन स्वीकार कर लिया था। अभिनन्दन प्रभु चौथे तीर्थंकर कहलाए। परिनिर्वाण भगवान ने 50 लाख पूर्व वर्षों का आयुष्य पूरा किया था। अपने प्रभावशाली और मार्मिक धर्मोपदेश द्वारा जनमानस को भोग से हटाकर त्याग के क्षेत्र में आकर्षित किया। अन्त में अपने जीवन का सांध्यकाल समीप ही अनुभव कर अनशन व्रत धारण कर लिया जो । माह निरन्तरित रहा और वैशाख शुक्ला अष्टमी को पुष्य नक्षत्र के श्रेष्ठ योग में प्रभु ने अन्य एक हजार मुनियों के साथ सकलकर्म आवरण को नष्ट कर दिया। वे मुक्त हो गए, उन्हें निर्वाण का गौरव पद प्राप्त हो गया। यही प्रभु की साधना का परम लक्ष्य और जीवन की चरम उपलब्धि थी। धर्म परिवार गणधर केवली मन:पर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी चौदह पूर्वधारी वैक्रियलब्धिधारी वादी साधु साध्वी श्रावक श्राविका 16 14,000 11,650 9,800 1,500 19,000 11,000 3,00,000 6,30,000 2,88,000 5,27,000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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