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________________ चौबीस तीर्थंकर - ज्यों-ज्यों वे विविध पदार्थों से सम्पन्न होते गए त्यों ही-त्यों भौतिक जगत् के प्रति असारता का भाव भी उनके मन में प्रबलतर होता गया । 26 दीक्षाग्रहण पद में प्राय: एक मद रहा करता है जो व्यक्ति को गौरव के साथ-साथ ग्रस्तता भी देता चलता है। सम्राट के समान शक्तिपूर्ण और अधिकार सम्पन्न उच्च पद पर रहकर भी राजा अभिनन्दन मानसिक रूप से वीतरागी ही बने रहे। दर्प अथवा अभिमान उन्हें स्पर्श भी नहीं कर पाया। काजल की कोठरी में रहकर भी उन्हेंने कालिख की एक लीक भी नहीं लगने दी। इसी अवस्था में उन्होंने अपने पद का कर्त्तव्य निष्ठापूर्वक पूर्ण किया। साढ़े छत्तीस लाख पूर्व की अवधि तक उन्होंने नीति एवं कर्त्तव्य का पालन न केवल स्वयं ही किया, अपितु प्रजाजन को भी इन सन्मार्गों पर गतिशील रहने को प्रेरित किया। प्रजावत्सलता के साथ शासन करके अन्ततः उन्होंने दीक्षा ग्रहण करने की अपनी उत्कट कामना को व्यक्त किया। अभीचि - अभिजित नक्षत्र के श्रेष्ठयोग में माघ शुक्ला द्वादशी को बेले की तपस्या में रत अभिनन्दन स्वामी ने संयम ग्रहण कर संसार का त्याग कर दिया। सिद्धों की साक्षी रही और प्रभु ने पंचमुष्टि लोच किया। उनके साथ एक हजार अन्य राजाओं ने भी संयम स्वीकार किया था । दीक्षोपरान्त आगामी दिवस मुनि अभिनन्दननाथ ने साकेतपुर नरेश इन्द्रदत्त के यहाँ पारणा किया। 'अहोदान' के निनाद के साथ देवों ने इस अवसर पर पाँच दिव्य भी प्रकट किए और दान की महिमा का गान किया। केवलज्ञान दीक्षा ग्रहण करते ही आपने मौनव्रत धारण कर लिया, जिसका निर्वाह करते हुए उन्होंने 18 वर्ष की दीर्घ अवधि तक कठोर तप किया- उग्रतप, अभिग्रह, ध्यान आदि में स्वयं को व्यस्त रखा। इस समस्त अवधि में वे छद्मअवस्था में भ्रमणशील बने रहे और ग्रामानुग्राम विचरण करते रहे। प्रभु अयोध्या में सहस्राभवन में बेले की तपस्या में थे कि उनका चित्त परम समाधिदशा में प्रविष्ट हो गया। वे शुभ शुक्लध्यान में लीन थे कि उसी समय उन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घाती कर्मों का क्षय कर दिया। अभिजित नक्षत्र में पौष शुक्ला चतुर्दशी को प्रभु ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया । प्रथम धर्मदेशना प्रभु के समावसरण की रचना हुई। देवों तिर्यंचों और मनुजों के अपार समुदाय में स्वामी अभिनन्दननाथ ने प्रथम धर्मदेशना दी। इस महत्त्वपूर्ण अवसर पर आपने धर्म के गूढ़ स्वरूप का विवेचन किया और उसका मर्म स्पष्ट किया। जनता के आत्म-कल्याण का पथ प्रदर्शित किया। अपने धर्मतीर्थ की स्थापना की थी, अतः 'भावतीर्थ' के गौरव से आप अलंकृत हुए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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