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________________ भगवान संभवनाथ 21 की स्थिति सांसारिक सुखों और भोगों की हुआ करती है। वे बड़े सुखद और आकर्षक लगते हुए भी परिणामों में अहितकर होते हैं, ये आत्मा की बड़ी भारी हानि करते हैं। अज्ञान के कारण ही मनुष्य भोगों के इन यथार्थ को पहचानने में असमर्थ है वह उसके छद्मरूप को ही उसका सर्वस्व मान बैठा है। संभवनाथ को यह देखकर घोर वेदना होती कि असंख्य कोटि आत्माएँ श्रेष्ठतम 'मानव-जीवन' प्राप्त कर भी अपने चरम लक्ष्य- 'मोक्ष- प्राप्ति' के लिए सचेष्ट नहीं है। इस उच्चतर उपलब्धि से वह लाभान्वित होने के स्थान पर ही प्रयोजनों में इसे व्यर्थ करता जा रहा है। मानवयोनि की महत्ता से वह अपरिचित है। महाराजा संभवनाथ को जब यह अनुभव गहनात के साथ होने लगा तो सर्वजनहिताय बनने की उत्कट कामना भी उनके मन में जागी और वह उत्तरोत्तर बलवती होने लगी। उन्होंने निश्चित किया कि मैं सोई हुई आत्माओं को जागृत करूँगा, मानव-जाति को उसके उपयुक्त लक्ष्य से परिचित कराऊँगा और उस लक्ष्य की प्राप्ति का मार्ग भी दिखाऊँगा। अब मेरे शेष जीवन की यही भूमिका रहेगी। उन्होंने यह भी निश्चय किया कि मैं स्वयं इस आदर्श मार्ग पर चलकर अन्यों को अनुसरण के लिए प्रेरित करूँगा। मैं अपना उदारहण भटकी हुई मानवता के समक्ष प्रस्तुत करूँगा। तभी जनसामान्य के लिए सम्यक् बोध की प्राप्ति संभव होगी। चिन्तन के इस स्तर पर पहुँचकर ही महाराजा के मन में त्याग का भाव प्रबल हुआ। वे अपार सम्पत्ति के दान में प्रवृत्त हो गए थे। भोगावली कर्मों के निरस्त होने तक संभवनाथ चवालीस लाख पूर्व और चार पूर्वाङ्ग. काल तक सत्ता का उपभोग करते रहे। इसके पश्चात् वे अनासक्त होकर विश्व के समक्ष अन्य ही स्वरूप में रहे। अब वे विरक्त हो गए थे। दीक्षा-ग्रहण : केवलज्ञान स्वयं-बुद्ध होने के कारण उन्हें तीर्थंकरत्व प्राप्त हो गया था। तीर्थंकरों को अन्य दिशा से उद्बोधन अथवा उपदेश की आवश्यकता नहीं रहा करती है। तथापि मर्यादा निर्वाह के लिए लोकान्तिक देवों ने आकर अनुरोध भी किया और प्रभु संभवनाथ ने भी प्रव्रज्या ग्रहण करने की कामना व्यक्त की। भगवान द्वारा किए गए त्याग का प्रारम्भ से ही बड़ा व्यापक और संघन प्रभाव रहा। दीक्षा-ग्रहण के प्रयोजन से जब वे गृह- त्याग कर सहस्राभवन पहुंचे, तो उनके साथ ही एक हजार राजा भी गृह- त्याग कर उनके पीछे चल पड़े। मृगशिर सुदी पूर्णिमा वह शुभ दिवस था जब प्रभु ने मृगशिर नक्षत्र के योग में दीक्षा ग्रहण कर ली, संयम धर्म स्वीकार कर लिया। चक्षुः श्रोत्र आदि पाँच इन्द्रियों तथा मान, माया, लोभ और क्रोध इन चार कषायों पर वे अपना दृढ़ नियंत्रण स्थापित कर चुके थे। दीक्षा- ग्रहण के साथ ही साथ आपको मनः पर्यवज्ञान का लाभ हो गया था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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