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________________ 22 चौबीस तीर्थंकर दीक्षा के आगामी दिवस प्रभु ने सावत्थी नगरी के महाराज सुरेन्द्र के यहाँ अपना प्रथम पारणा किया। प्रभु ने अपना शेष जीवन कठोर तप-साधना को समर्पित कर दिया। चौदह वर्ष तक सघन वनों, गहन कंदराओं, एकान्त गिरि शिखरों पर ध्यान-लीन रहे, मौनपूर्वक साधना- लीन रहे। छद्मावस्था में ग्रामानुग्राम विहार करते रहे। अन्तत: अपने तप द्वारा प्रभु घनघाती कर्मों के विनाश में समर्थ हुए। उन्हें श्रावस्ती नगरी में कार्तिक कृष्णा पंचमी को मृगशिर नक्षत्र के शुभ योग में केवलज्ञान-केवलदर्शन का लाभ हो गया। प्रथम देशना प्रभु संभवनाथ ने अनुभव किया था कि युग भौतिक सुखों की ओर ही उन्मुख है। धर्म, वैराग्य, त्याग आदि केवल सिद्धान्त की वस्तुएँ रह गयी थीं। इनके मर्म को समझने और उनको व्यवहार में लाने को कोई रुचिशील नहीं था। घोर भोग का वह युग था। प्रभु ने अपनी प्रथम देशना में इन भोग-निद्रा में निमग्न मानव जाति को जागृत किया। उन्होंने जीवन की क्षण-भंगुरता और सांसारिक सुखोपभोगों की असारता का बोध कराया। जगत के सारे आकर्षण मिथ्या हैं-यौवन, रूप, स्वजन-परिजन-सम्बन्ध, धन, विलास सब कुछ नश्वर हैं। इनके प्रभाव की क्षणिकता को मनुष्य अज्ञानवश समझ नहीं पाता और उन्हें शाश्वत समझने लगता है। यह अनित्यता में नित्यता का आभास ही समस्त दुःखों का मूल है। यह नित्यता की कल्पना मन में अमुक वस्तु के प्रति अपार मोह जागृत कर देती है और जब स्वधर्मानुसार वह वस्तु विनाश को प्राप्त होती है, तो उसके अभाव में मनुष्य उद्विग्न हो जाता है, दुःखी हो जाता है। जो यह जानता है कि अस्तित्व ग्रहण करने वाली प्रत्येक वस्तु विनाशशील है, उसे वस्तु के विनाश पर शोक नहीं होता। प्रभु ने उपदेश दिया कि भौतिक वस्तुओं के अस्तित्व और प्रभाव को क्षणिक समझो, उसके प्रति मन में मोह को घर न करने दो। परिग्रह के बन्धन से मन को मुक्त रखो और ममता की प्रवंचना को प्रभावी न होने दो। आसक्ति से दूर रहकर शाश्वत सुख के साधन आत्मधर्म का आश्रय ग्रहण करो। प्रभु के उपदेश से असंख्य भटके मनों को उचित राह मिली, भ्रम की निद्रा टूटी और यथार्थ के जागरण में प्रवेश कर हजारों स्त्री-पुरुषों में विरक्ति की प्रेरणा अंगड़ाई लेने लगी। मिथ्या जगत् का त्याग कर अगणित जनों ने मुनिव्रत ग्रहण किया। बड़ी संख्या में गृहस्थों ने श्रावक व्रत ग्रहण किए। प्रभु ने चार तीर्थ की स्थापना भी की और भाव तीर्थंकर कहलाए। परिनिर्वाण चैत्र शुक्ला पंचमी को मृगशिर नक्षत्र में प्रभु संभवनाथ ने परिनिर्वाण की प्राप्ति की। इस समय वे एक दीर्घ अनशन व्रत में थे। शुक्लध्यान के अन्तिम चरण में प्रवेश करने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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