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चौबीस तीर्थंकर
शुक्ला अष्टमी को मृगशिर नक्षत्र में वह पुण्यशाली जीव सातवीं ग्रैवेयक में 29 सागरोपम की स्थिति भोगकर महारानी सेनादेवी के गर्भ में आया और रानी ने चक्रवर्ती अथवा तीर्थंकर की जननी होने का फल देने वाले चौदह महाशुभ स्वप्नों का दर्शन किया। स्वप्नफल-दर्शकों की घोषणा से राज्य भर में उल्लास प्राप्त हो गया। अत्यन्त उमंग के साथ माता ने संयम-नियम पूर्वक आचरण- व्यवहार के साथ गर्भ का पोषण किया। उचित समय आने पर मृगशिर शुक्ला चतुर्दशी की अर्द्धरात्रि को रानी ने उस पुत्र-रत्न को जन्म दिया, जिसकी अलौकिक आभा से समस्त लोक आलोकित हो गया।
युवराज के जन्म से सारे राज्य में अद्भुत परिवर्तन होने लगे। सभी की समृद्धि में अभूतपूर्व वृद्धि होने लगी। धान्योत्पादन कई-कई गुना अधिक होने लगा। इसके अतिरिक्त महाराज जितारि को अब तक असम्भव प्रतीत होने वाले कार्य संभव हो गये, स्वत: ही सुगम और करणीय हो गए। अत: माता-पिता ने विवेक पूर्वक अपने पुत्र का नाम रखा-'संभवकुमार।'
अनासक्त गृहस्थ जीवन
युवराज संभवकुमार ज्यों-ज्यों आयु प्राप्त करने लगा, उसके सुलक्षण और शुभकर्म प्रकट होते चले गए। शीघ्र ही उसके व्यक्तित्व में अद्भुत तेज, पराक्रम और शक्ति-सम्पन्नता की झलक मिलने लगी। अल्पायु में ही उसे अपार ख्याति प्राप्त होने लगी थी। उपयुक्त वय प्राप्त करने पर महाराज जितारि ने श्रेष्ठ और सुन्दर कन्याओं के साथ युवराज का विवाह किया। जितारि को आत्म-कल्याण की लगन लगी हुई थी, अत: वह अपने उत्तराधिकारी संभवकुमार को राज्यादि समस्त अधिकार सौंपकर स्वयं विरक्त हो गया और साधनालीन रहने
लगा।
अब संभवकुमार नरेश थे। वे अपार वैभव और सत्ताधिकार के स्वामी थे। सुखोपभोग की समस्त सामग्रियाँ उनके लिए सुलभ थीं; स्वर्गोपम जीवन की सारी सुविधाएँ उपलब्ध थीं। किन्तु संभवकुमार का जीवन इन सब भोगों में व्यस्त रहकर व्यर्थ हो जाने के लिए था ही नहीं। अपनी इस महिमायुक्त स्थिति के प्रति वे उदासीन रहते थे। प्रत्येक सुखकर और आकर्षक वस्तु के पीछे छिपी उसकी नश्वरता का, अनित्यता का ही दर्शन संभवकुमार को होता रहता था और उन वस्तुओं के प्रति उनकी रुचि बुझ जाती। चिन्तनशीलता और गंभीरता के नये रंग उसके व्यक्तित्व में गहरे होने लगे।
अनासक्त भाव से ही वे राज्यासन पर विराजित और वैभव-विलास के वातावरण में विहार करते रहे। भौतिक समृद्धियों और ऐश्वर्य की अस्थिरता से तो वे परिचित हो ही गए थे। उन्होंने साधनहीनों को अपना कोष लुटा दिया। अपार मणि-माणिक्यादि सब कुछ उन्होंने उदारतापूर्वक दान कर दिया। भोगों के यथार्थ और वीभत्स स्वरूप के साथ उनका परिचय हो गया। उनकी चिन्तनशीलता की प्रवृत्ति ने उन्हें अनुभव करा दिया था कि जैसे विषाक्त व्यंजन प्रत्यक्षत: बड़े स्वादु होते हुए भी अन्तत: घातक ही होते हैं-ठीक उसी प्रकार
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