________________
भगवान संभवनाथ
19
स्वयं राजा भी अपनी प्रजा के कष्टों से अत्यधिक दुःखी था। उसने भरसक प्रयत्न किया, किन्तु दैविक विपत्ति को वह दूर नहीं कर सका। क्षुधित प्रजा के लिए नरेश विपुलवाहन ने समस्त राजकीय अन्न-भण्डार खोल दिए। उच्चवंशीय धनाढ्य जन भी याचकों की भाँति अन्न-प्राप्ति की आशा लगाए खड़े रहने लगे। राजा सभी की सहायता करता और सेवा से उत्पन्न हार्दिक प्रसन्नता में निमग्न-सा रहता। प्रत्येक वर्ग की देख-भाल वह स्वयं किया करता और सभी को यथोचित अन्न मिलता रहे इसकी व्यवस्था करता रहता था।
क्षेमपरी में विचरणशील श्रमणों और त्यागी गृहस्थों पर इस प्राकृतिक विपदा का प्रभाव अत्यन्त प्रचण्ड था। ये किस गृहस्था के द्वार जाकर आहार की याचना करते? सभी तो संकट-ग्रस्त थे। चाहते हुए भी तो कोई साधुजनों को भिक्षा नहीं दे पाता था। धार्मिक प्रवृत्ति पर भी यह एक विचित्र संकट था। ये श्रमणजन दीर्घ उपवासों के कारण क्षीण और दुर्बल हो गये थे। जब राजा विपुलवाहन को इनकी संकटापन्न स्थिति का ध्यान आया तो वह दौड़कर श्रमणजन के चरणों में पहुँचा, श्रद्धा सहित नमन किया और बार-बार गिड़गिड़ाकर क्षमा-याचना करने लगा कि जब तक वह इनकी सेवा-सत्कार नहीं कर सका। उसे अपनी इस भूल पर बड़ा दुःख हो रहा था। राजा ने अत्यन्त आग्रह के साथ उन्हें निमंत्रित किया और प्रार्थना की कि मेरे लिए तैयार होने वाले भोजन में से आप कृपापूर्वक अपना आहार स्वीकार करें। राजा का आग्रह स्वीकृत हो गया। सभी श्रमणजन, त्यागी गृहस्थ, समस्त श्री संघ जब भिक्षार्थ राजमहल में आने लगा।
राजा विपुलवाहन ने अपने अधिकारियों को आदेश दे रखा था कि मेरे लिए जो भोजन तैयार हो, उसमें से पहले श्रमणों को भेंट किया जाय। जो कुछ शेष रहेगा मैं तो उसी से सन्तुष्ट रहूँगा। हुआ भी ऐसा ही और कभी राजा को क्षुधा- शान्ति के लिए कुछ मिल जाता और कभी तो वह भी प्राप्त नहीं हो पाता, किन्तु उसे जन-सेवा का अपार सन्तोष बना रहता था। उसका विचार था कि मैं स्वादिष्ट, श्रेष्ठ व्यंजनों का सेवन करता रहूँगा तो वैसी परिस्थिति में मुझे न तो श्रमणों के दान का फल प्राप्त होगा और न ही मेरी प्रजा के कष्टों का प्रत्यक्ष अनुभव मुझे हो सकेगा।
मानव मात्र के प्रति सहानुभूति और सेवा की उत्कट भावना और संघ की सेवा के प्रतिफल स्वरूप राजा विपुलवाहन ने तीर्थंकर नाम-कर्म का उपार्जन किया। कालान्तर में राज्यभार अपने पुत्र को सौंपकर वह दीक्षा ग्रहण कर साधना-पथ पर अग्रसर हुआ। कठोर तपस्याओं के पश्चात् जब उसका आयुष्य पूर्ण हुआ तो उसे आनत स्वर्ग में स्थान प्राप्त हुआ।
जन्म-वंश
श्रावस्ती नगरी में उन दिनों महाराज जितारि का राज्य था। महारानी सेनादेवी उसकी धर्मपत्नी थी। विपुलवाहन का जीव इसी राजपरिवार में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ था। फाल्गुन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org