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चौबीस तीर्थंकर
महाराजा अजितनाथ ने प्रजापालन का दायित्व अत्यन्त कौशल और निपुणता के साथ निभाया। राजय भर में सुख-शान्ति का ही प्रसार था। व्यवस्थाएँ निर्बाध रूप से चलती थीं और सारे राज्य की समृद्धि भी विकसित होने लगी थी। अजितनाथ अपनी इस भूमिका के कर्तव्य वाले अंश में ही रुचिशील रहे थे। अधिकारों वाले पक्ष की ओर वे उदासीन बने रहे। अन्तत: उन्होंने विनीता राज्य का समस्त भार अपने चचेरे अनुज सगर (सुमित्र का पुत्र, जो दूसरा चक्रवर्ती था) को सौंपकर स्वयं दीक्षित हो जाने का संकल्प कर लिया। वस्तुत: अब तक भोगावलि के कर्मभार का प्रभाव क्षीण हो गया था, अत: विरक्ति भाव का उदय स्वाभाविक ही था।
दीक्षा ग्रहण एवं केवलज्ञान
अजितनाथ के संकल्प से प्रभावित होकर स्वयं लोकान्तिक देवों ने उनसे धर्मतीर्थ के प्रवर्तन का अनुरोध किया। एक वर्ष आपने दानादि शुभकार्यों में व्यतीत किया और तदनन्तर माघ शुक्ला नवमी के शुभ दिन दीक्षा ग्रहण कर ली। सहस्रामवन में अजितनाथ ने पंचमुष्टिक लोचकर सम्पूर्ण सावध कर्मों का त्याग किया। असंख्य दर्शकों ने जय-जयकार किया। दीक्षा की महत्ता से प्रभावित होकर अजितनाथ के साथ ही 1000 अन्य राजा व राजकुमारों ने भी दीक्षा ग्रहण के तुरन्त पश्चात् ही उन्हें मन:पर्यवज्ञान का लाभ हुआ। आगामी दिवस राजा ब्रह्मदत्त के यहाँ प्रभु अजितनाथ का प्रथम पारणा क्षीरान्न से सम्पन्न हुआ था।
बारह वर्षों का सुदीर्घकाल प्रभु ने कठोर तप और साधना में व्यतीत किया। सच्ची निष्ठा और लगन के साथ साधना व्यस्त भगवान अजितनाथ गाँव-गाँव विहार करते रहे। विचरण करते-करते वे जब पुन: अयोध्या नगरी में पहुँचे तो पौष शुक्ला एकादशी को उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। वे केवली हो गये थे, अरिहन्त (कर्म शत्रुओं के हननकर्ता) हो गये थे। अरिहन्त के 12 गुण भगवान में उदित हुए।
प्रथम देशना
केवली प्रभु अजितनाथ का समवसरण हुआ। प्रभु ने अमोघ और दिव्य देशना दी और इस प्रकार वे 'भाव-तीर्थ' की गरिमा से सम्पन्न हो गया। प्रभु की देशना अलौकिक और अनुपम प्रभावयुक्त थी। 35 वचनातिशययुक्त प्रभु के वचनों का श्रोताओं पर सघनरूप से प्रभाव हुआ। वैराग्य की महिमा को हृदयंगम कर वे श्रद्धा से नमित हो गए। असंख्याजनों ने सांसारिक सुखोपभोगों की असारता से अवगत होकर प्रव्रज्या ग्रहण की। प्रभु की वाणी के महिमामय चमत्कार का परिचय इस तथ्य से भी प्राप्त होता है कि उससे प्रेरित होकर लाखों स्त्री-पुरुषों ने दीक्षा ग्रहण कर ली थी। प्रभु ने अपनी देशना द्वारा चतुर्विध संघ की स्थापना की।
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