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________________ भगवान अजितनाथ 15 यथोचित अवधि समाप्त होने पर महारानी विजया देवी ने पुत्र को जन्म दिया। शिशु के शुभ पदार्पण मात्र से ही सर्वत्र अद्भुत आलोक व्याप्त हो गया। धरा-गगन प्रसन्नता से झूम उठे। चहुँ ओर उत्साह का साम्राज्य फैल गया। नारक जीव भी कुछ पलों के लिए अपने घोर कष्टों को विस्मृत कर आनन्दानुभव करने लगे थे। यह माघ शुक्ला अष्टमी की शुभ तिथि थी, जब भगवान का जन्म कल्याणक पृथ्वी तल के नरेन्द्रों ने ही नहीं देवेन्द्रों ने भी सोत्साह मनाया। असंख्य देवताओं ने पुष्प-वर्षा और मंगलगान द्वारा आत्मिक हर्ष को व्यक्त किया था। जितशत्रु ने याचकों की मनोकामनाओं को पूर्ण करते हुए अपार दान किया और कारागार के द्वार खोल दिये। जब से राजकुमार अजित माता के गर्भ में आये तब से ही एक विशेष प्रभाव यह हुआ कि पिता राजा जितशत्रु को कोई पराजित नहीं कर सका यह अजित ही बना रहा। अत: माता-पिता ने पुत्र का नामकरण 'अजितनाथ' किया। नामकरण के औचित्य का निर्धारण एक अन्य प्रकार से भी किया जाता है कि राजा और महारानी परस्पर विविध प्रकार के खेल खेला करते थे। इनमें महारानी की कभी विजय होती, तो कभी पराजय; किन्तु जब तक यह तेजस्वी पुत्र गर्भ में रहा महारानी अजित बनी रहीं, उन्हें राजा परास्त नहीं कर सके। अत: पुत्र का नामकरण इस रूप में हुआ। गृहस्थ-जीवन बाल्यावस्था से ही राजकुमार अजितनाथ में अपने पूर्व जन्म के संस्कारों का प्रभाव दृष्टिगत होने लगा गया था और यह प्रभाव उत्तरोत्तर प्रबलता धारण करता रहा। प्रभुत्व, ऐश्वर्य, अधिकार सम्पन्नता-क्या नहीं था उनके लिए? किन्तु उन्हें इनमें रुचि नहीं रही। वे तटस्थ भाव से ही राजपरिवार में रहते थे। बड़े से बड़ा आकर्षण भी उनकी तटस्थता को विचलित नहीं कर पाता था। प्रमाणस्वरूप उनके जीवन का यह महत्त्वपूर्ण प्रसंग लिया जा सकता है कि माता-पिता ने सर्व प्रकार से योग्य और अनिंद्य सुन्दरियों को कुमार के विवाहार्थ चुना और कुमार का उनके साथ पाणि-ग्रहण भी हुआ, किन्तु यह अजितनाथ की स्वेच्छा से नहीं हुआ था। मात्र माता-पिता का अत्याग्रह और उनकी आज्ञापालन का जो दृढभाव था उसी भावना ने उनको विवाह के लिए बाध्य किया। ___ इसी प्रकार वृद्धवस्था आ जाने पर जब पिता जितशत्रु ने आत्मकल्याण में प्रवृत्त होने का विचार किया एवं अजितनाथ से शासन सूत्र सँभालने को कहा तो मन से विरक्त कुमार ने प्रथमत: राजा के आग्रह को सविनय अस्वीकार करते हुए सुझाव दिया कि चाचा (सुमित्र) को आसनारूढ़ किया जाये। उन्होंने कहा कि मैं इस सत्ताधिकार को व्यर्थ का जंजाल मानता हूँ। अत: इन बन्धनों से मुक्त ही रहना चाहता हूँ-और फिर चाचा भी सर्वभाँति योग्य हैं। परिस्थितियाँ विपरीत रहीं। चाचा ने राजा का पद स्वीकार करने के स्थान पर अजितनाथ से ही राजा बनने का प्रबल अनुरोध किया। माता-पिता का आग्रह था ही। इन सब कारणों से विवश होकर उन्हें शासन-सूत्र अपने हाथों में लेना पड़ा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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