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चौबीस तीर्थंकर
ही क्या मनुष्य को मनुष्य कहलाने का अधिकारी बना पाता है ? क्या इसी में मानव जीवन की सफलता निहित रहती है ? जीवन के सम्बन्ध में चिन्तन राजा विमलवाहन का स्वभाव ही हो गया था।
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एक समय का प्रसंग है कि आचार्य अरिदमन का आगमन इस नगर में हुआ । आचार्यश्री उद्यान में विश्राम कर रहे थे। महाराजा ने जब यह समाचार पाया तो उनके हृदय में नवीन प्रेरणा, उत्साह और हर्ष जागृत हुआ। उल्लसित होकर महाराजा उद्यान में गये और आचार्य के दर्शन कर गद्गद हो गये। आचार्य के त्यागमय जीवन का महाराजा के मन पर गहरा प्रभाव हुआ। आचार्य से विरक्ति और त्याग का उपदेश पाकर तो उनका हृदय परिवर्तन ही हो गया। समस्त दुविधाएँ, समस्त वासनाएँ शान्त हो गयीं। एक अभीष्ट मार्ग उन्हें मिल गया था, जिस पर वे यात्रा के लिए वे संकल्पबद्ध हो गये ।
विरक्त होकर महाराजा विमलवाहन ने यौवन में ही जगत् का त्याग कर दिया। वे राज्यासन पर पुत्र को आरूढ़ कर स्वयं तपस्या के लिए अनगार बन गये। मुनि जीवन में विमलवाहन ने अत्यन्त कठोर तप साधना की और उन्हें अनुपम उपलब्धियाँ भी मिलीं। 5 समित, 3 गुप्ति की साधना के अतिरिक्त भी अनेकानेक तप, अनुष्ठान आदि में वे सतत् रूप से व्यस्त रहे। एकावली, रत्नावली, लघुसिंह - महासिंह - निक्रीड़ित आदि तपस्याएँ सम्पन्न कर वे कर्म - निर्जरा में सफल रहे और बीस बोल की आराधना कर उन्होंने तीर्थंकर नाम-कर्म भी उपार्जित किया था। परिणामतः जब उन्होंने अनशन कर देह त्यागा, तो विजय विमान में वे अहमिन्द्र देव के रूप में उद्भूत हुए ।
जन्म एवं वंश
विनीता नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था। उसकी धर्मपत्नी महारानी विजया देवी अति धर्मपरायणा महिला थी। इसी राजपरिवार में विमलवाहन का जीव राजकुमार अजितनाथ के रूप में अवतरित हुआ था । वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को रोहिणी नक्षत्र के सुन्दर योग में विमलवाहन का जीव विजय विमान से च्युत हुआ था और उसी रात्रि में महारानी विजया देवी के गर्भ धारण किया था। गर्भवती महारानी ने 14 महान् स्वप्नों का दर्शन किया। परिणामोत्सुक महाराजा जिनशत्रु ने स्वप्न फल - द्रष्टाओं को ससम्मान निमंत्रित किया, जिन्होंने स्वप्नों की सारी स्थितियों से अवगत होकर विचारपूर्वक उनके भावी परिणामों की घोषणा करते हुए कहा कि महारानी ऐसे पुत्र की जननी बनने वाली हैं जो महान चक्रवर्ती अथवा तीर्थंकर होगा। सामुद्रिकों की इस घोषणा से राजपरिवार ही नहीं समूचे राज्य में हर्ष ही हर्ष व्याप्त हो गया। इस परम मंगलकारी भावी उद्भव के शुभ प्रभाव अभी से ही लक्षित होने लगे थे। उसी रात्रि में महाराजा जितशत्रु के अनुज सुमित्र की धर्मपत्नी ने भी गर्भ धारण किया और उसने भी ऐसे ही 14 दिव्य स्वप्नों का दर्शन किया था - यह इसका प्रमाण है । सुमित्र ने भी यथासमय चक्रवर्ती पुत्र रत्न की प्राप्ति की थी ।
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