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________________ 2] भगवान अजितनाथ (चिन्ह-हाथी) मानव-सभ्यता के आद्य- प्रवर्तक एवं सामाजिक व्यवस्थाओं के उन्नायक प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के पश्चात् भगवान अजितनाथ का अवतरण द्वितीय तीर्थंकर के रूप में हुआ। यह उल्लेखनीय ऐतिहासिक तथ्य है कि इन दोनों के अवतरण के मध्य शून्य का एक सुदीर्घकालीन अन्तराल रहा। पूर्वभव मानवमात्र के जीवन का स्वरूप पूर्वजन्मों के संस्कारों पर निर्भर करता है। जन्मजन्मान्तरों में कर्मशृंखला का जो रूप रहता है तदनुरूप ही वर्तमान जीवन रहा करता है। वर्तमान जीवन की उच्चता-निम्नता अतीतकालीन स्वरूपों का ही परिणाम होती है। भगवान अजितनाथ का जीवन भी इस नियम का अपवाद नहीं था। भगवान अजितनाथ पूर्वजन्म में महाराज विमलवाहन थे। नरेश विमलवाहन अत्यन्त कर्तव्यपरायण और प्रजावत्सल थे। अपार शोर्य के धनी होने के साथ-साथ भक्ति के क्षेत्र में भी वे अप्रतिम स्थान रखते थे। वे युद्धवीर थे, साथ ही साथ उच्चकोटि के दानवीर, दयावीर और धर्मवीर भी थे। महाराजा के चरित्र की इन विशेषताओं ने उनके व्यक्तित्व को अद्भुत गरिमा और अपार कीर्ति का लाभ कराया था। विशाल वैभव और अधिकारों के महासरोवरों में विहार करते हुए भी वे कमलवत् निर्लिप्त रहे। सांसारिक सुखोपभोगों के प्रति उनके मन में रंचमात्र भी अनुरक्ति का भाव नहीं था। राजा विमलवाहन में चिन्तन की मौलिक प्रवृत्ति भी थी जो प्राय: उन्हें आत्मलीन रखती थी। वे गम्भरतापूर्वक सोचा करते कि मैं भी एक साधारण मनुष्य हूँ ऐसा मनुष्य जो क्षणिक स्वार्थ के क्रिया-कलापों में ही अपना समग्र जीवन समाप्त कर देता है। इसे अपने जीवन का परम और चरम लक्ष्य मानकर वह अन्यों के लिए भय, सन्ताप, कष्ट और चिन्ता का कारण बना रहता। पाप कर्मों में उसे बड़ा रस मिलता है। यही नहीं; शारीरिक सुखों, प्रतिष्ठा, स्वनाम - अमरता आदि थोथी वस्तुओं के लिए भी अपने आप को भी नाना प्रकार के कष्टों और जोखिमों में डालता रहता है। यह सब तो मनुष्य करता ही रहता है, किन्तु आत्मोत्थान की दिशा में वह तनिक भी नहीं सोच पाता। जीवन का यह असार रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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