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________________ चौबीस तीर्थंकर था, शेष 99 पुत्रों को भी स्वयं भगवान ने यथा योग्यतानुसार छोटे-मोटे राज्यों का राज्यत्व प्रदान किया था। इनमें से भी बाहुबली नामक नरेश बड़ा प्रतापी और शक्तिशाली था। आयुधशाला में चक्ररत्न की उत्पत्ति पर महाराज भरत को चक्रवर्ती सम्राट बनने की प्रबल प्रेरणा मिली और उन्होंने तदर्थ अभियान प्रारम्भ किया था। जब भरत ने अपने पराक्रम और शक्ति के बल पर देश-देश के नृपतियों से अपनी अधीनता स्वीकार कराली तो अब एकछत्र सम्राट बनने की बलवती भावना उसे अपने इस 98 बन्धुओं पर भी विजय-स्थापना के लिए उत्साहित करने लगी। निदान राजा भरत ने इन बन्धु नरेशों को सन्देश भेजा कि या तो वे मेरी अधीनता स्वीकार करलें या युद्ध के लिए तत्पर हो जाएँ। इस सन्देश में जो आतंक लिपटा हुआ था, उसने इन नरेशों को विचलित कर दिया। पिता के द्वारा ही इन्हें ये राज्यांश प्रदान किये गये थे और भरत के अपार वैभव, सत्ता और शक्ति के समक्ष ये नगण्य से थे। भरत को कोई अभाव नहीं, फिर भी सत्ता के मद और इच्छाओं के शासन से ग्रस्त भरत अपने भाइयों को भी त्रास-मुत्त नहीं रखना चाहता था। वस्तुत: भरत इन पर विजय प्राप्त किये बिना चक्रवर्ती बनता भी कैसे? अत: उसके लिए यह अनिवार्य भी था, किन्तु ये क्षत्रिय नरेश कायरतापूर्वक अपने राज्य भरत की सेवा में अर्पण भी कैसे कर दें? और यदि ऐसा न करें तो अपने ज्येष्ठ भ्राता के विरुद्ध युद्ध भी कैसे करें? इस समस्या पर सभी बन्धुओं ने मिलकर गंभीरता से विचार किया, किन्तु समस्या का कोई हल उनसे निकल नहीं सका। उनके मन में आतंक भी जमा बैठा था और तीव्र अन्तर्द्वन्द्व भी। ऐसी अत्यन्त कोमल परिस्थिति में उन्होंने भगवान से मार्ग-दर्शन प्राप्त करने का निश्चय किया और यह निश्चय किया कि भगवान जो निर्णय और सुझाव देंगे वही हमारे लिए आदेश होगा। हम सभी भगवान के निर्देश का अक्षरश: पालन करेंगे। यह निश्चय कर वे सभी अपने पिता तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव स्वामी की सेवा में उपस्थित हुए। भगवान के समक्ष अपनी समस्या प्रस्तुत करते हुए निर्देशार्थ वे सभी प्रार्थना करने लगे। भगवान ने उन्हें अत्यन्त स्नेह के साथ प्रबोध दिया। उन्होंने अपनी देशना में कहा कि सृष्टि का एक शाश्वत नियम है-'मत्स्य न्याय'। बड़ी मछली छोटी मछली को अपना आहार बना लेती है और वह भी अपने से बड़ी मछली के लिए आहार बन जाती है। इस प्रकार सर्वाधिक शक्तिशाली का ही अस्तित्व अवशिष्ट रहता है। शक्तिहीनों का उसी में समाहार हो जाता है। मनुष्य की इस सहज प्रवृत्ति का अपवाद भरत भी नहीं है। उसने चक्रवर्ती सम्राट बनने का लक्ष्य निर्धारित किया है, तो वह तुम लोगों पर भी विजय प्राप्त करना ही चाहेगा। बन्धुत्व का सम्बन्ध उसके इस मार्ग में बाधक नहीं बने यह भी स्वाभाविक है। प्रभु कुछ क्षण मौन रहकर फिर मधुर गिरा से बोले-पुत्रो! यह उसका सत्ता और पद का मद है जिसे प्रतिबंधित कर पाने का सामर्थ्य तो तुम लोगों में नहीं है, किन्तु तुम भी क्षत्रिय वीर हो। इस प्रकार कायरता के साथ तुम उसे राज्य समर्पित कर उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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