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________________ भगवान ऋषभदेव से अवगत होकर सम्राट भरत गद्गद हो गये। भावी तीर्थंकर मरीचि का उन्होंने अभिनन्दन किया। कुमार कपिल मरीचि का शिष्य था। उसने मरीचि द्वारा स्थापित परिव्राजक धर्म को सुनियोजित रूप दिया। इस नवीन परम्परा का व्यवस्थित समारम्भ किया। सुन्दरी और ब्राह्मी : वैराग्य-कथा ___ भगवान ऋषभदेव की दोनों पुत्रियाँ ब्राह्मी और सुन्दरी सतियों में अग्र-स्थान रखती हैं। नाम ही के लिए इनका विवाह हुआ था, अन्यथा न तो इन्होंने विवाहित जीवन व्यतीत किया और न ही इनका प्रत्यक्ष पाणिग्रहण संस्कार हुआ था। __भगवान को केवलज्ञान का लाभ होते ही ब्राह्मी ने दीक्षा ग्रहण करली थी किन्तु सुन्दरी को यह सौभाग्य उत्कट अभिलाषा होते हुए भी तुरन्त नहीं मिल पाया। कारण यह था कि सम्राट भरत ने तदर्थ अपनी अनुमति उसे प्रदान नहीं की। वह चाहता था कि चक्रवर्ती पद प्राप्त कर मैं सुन्दरी को स्त्रीरत्न नियुक्त करूँ। कतिपय विद्वानों (आचार्य जिनसेन प्रभृति) की मान्यतानुसार तो सुन्दरी ने भी भगवान की प्रथम देशना से प्रतिबुद्ध होकर दीक्षा ग्रहण करली, किन्तु शेष विद्वज्जनों का इस तथ्य के विषय में मतैक्य नहीं पाया जाता। उनके अनुसार सुन्दरी ने सम्राट की अनुमति के अभाव में उस समय तो दीक्षा ग्रहण नहीं की, किन्तु उसका मन सांसारिक विषयों से विरक्त हो गया था। संयम-रंग में रंगा उसका मन संसार में नहीं रम सका और उसने श्रावक धर्म स्वीकार कर लिया। सुन्दरी प्रथम श्राविका बनी। घटना-चक्र इस प्रकार रहा कि ज्योंही सम्राट भरत ने षट् खण्ड पृथ्वी पर विजय स्थापना के प्रयोजन से प्रस्थान किया था-उसी समय सुन्दरी ने आयम्बिल तप आरम्भ कर दिया था चक्रवर्ती पद की सम्पूर्ण गरिमा प्राप्त करने में भरत को 60 हजार वर्ष का समय लग गया था। जब वह इस परम गौरव के साथ लौटा तो उसने पाया कि सुन्दरी अत्यन्त कृषकाय हो गयी है। उसे ज्ञात हुआ कि जब उसने सुन्दरी को दीक्षार्थ अनुमति नहीं दी थी, उसने उसी दिन से आचाम्लव्रत आरम्भ कर दिया था। भरत के हृदय में मन्थन मच गया। उसने सुन्दरी से अपना मन्तव्य प्रगट करने को कहा-'तुम गृहस्थ-जीवन का निर्वाह करना चाहती हो अथवा संयम स्वीकार करना?' निश्चित था कि सुन्दरी दूसरे विकल्प के विषय में ही अपनी दृढ़ता प्रकट करती। हुआ भी ऐसा ही। सम्राट ने अपनी अनुमति प्रदान कर दी और सुन्दरी भी प्रव्रज्या ग्रहण कर साध्वी हो गयी। 98 पुत्रों का देशना तीर्थंकरत्व धारण कर भगवान ने सर्वजनहिताय दृष्टिकोण के साथ व्यापक क्षेत्रों में विहार किया और जन-जन को बोध प्रदान किया। असंख्य जन प्रतिबुद्ध होकर आत्मकल्याण की साधना में लग गये थे। जैसा कि वर्णित किया जा चुका है भगवान 100 पुत्रों के जनक थे। इनमें से भरत ज्येष्ठ था, जो भगवान का उत्तरधिकारी हुआ और शासन करने लगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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