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________________ चौबीस तीर्थंकर ठीक इसी समय सम्राट भरत को चक्रवर्ती बनाने वाले चक्ररतन और पितृत्व का गौरव प्रदान वाले पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी। तीनों शुभ समाचार एक साथ पाकर भरत हर्ष - विह्वल हो उठे और निश्चय न कर पाये कि प्रथमतः कौन-सा उत्सव मनाया जाये। अन्ततः यह सोचकर कि चक्र प्राप्ति अर्थ का और पुत्र प्राप्ति काम का फल है, किन्तु केवलज्ञान धर्म का फल है और यही सर्वोत्तम है - इस उत्सव को ही उन्होंने प्राथमिकता दी। 6 देशना एवं तीर्थ-स्थापना माता मरुदेवा ने भरत से भगवान ऋषभनाथ के केवलज्ञान प्राप्ति का समाचार सुना तो उसके वृद्ध, शिथिल शरीर में भी स्फुर्ति व्याप्त हो गयी। उसका मन अपने पुत्र को देख लेने को व्यग्र था। वह भी भरत के साथ भगवान का कैवल्य महोत्सव मनाने गयी। माता ने देखा अशोक वृक्ष तले सिंहासनारूढ़ पुत्र ऋषभदेव के श्रीचरणों में असंख्य देवी-देवता नमन कर रहे हैं, अनेकधा पूजा-अर्चना कर रहे हैं और प्रभु देशना दे रहे हैं। भाव-विभोर माता का वात्सल्य भाव भक्ति में बदल गया । विरक्ता मरुदेवा उज्ज्वल शुक्लध्यान में लीन होकर सिद्ध - बुद्ध हो गयी। कर्मों का आवरण छिन्न हो गया और वह मुक्त हो गयी। उसे दुर्लभ निर्वाणपद की सहज उपलब्धि हो गयी । स्वयं भगवान ने इस आशन की घोषणा की कि इस युग की सर्वप्रथम मुक्ति - गामिनी मरुदेवा सिद्ध भगवती हो गयी है। मरीचि : प्रथम परिव्राजक सम्राट भरत के पुत्र मरीचि ने भगवान की देशना से उबुद्ध होकर भगवान के श्री चरणों में ही दीक्षा ग्रहण करली और दीक्षित होकर साधना प्रारम्भ की। साधना का मार्ग जितना कठिन है और इस मार्ग में आने वाली परीषह - बाधाएँ जितनी कठोर होती हैं उतनी ही कोमल कुमार मरीचि की काया थी । फलतः उन भीषण व्रतों और प्रचण्ड उपसर्ग - परीषहों को वह झेल नहीं पाया तथा कठोर साधना की पगडंडी से च्युत हो गया। उसके समक्ष समस्या आ खड़ी हुई - न तो वह इस संयम का निर्वाह कर पा रहा था और न ही पुनः गृहस्थ- मार्ग पर आरूढ़ हो पा रहा था। वह समस्या का निदान खोजने लगा और अपनी स्थिति के अनुरूप उसने एक नवीन वीतराग -स्थिति की मर्यादाओं की कल्पना की । श्रमण-धर्म से उसने संभाव्य बिन्दुओं का चयन किया और उनका निर्वाह करते हुए वैराग्य के एक नवीन वेश में विचरण करने का निश्चय किया। उसका यह नवीन रूप - 'परिव्राजक वेश' के रूप में प्रकट हुआ। यहीं से परिव्राजक धर्म की स्थापना हुई, जिसका उन्नायक मरीचि था और वही प्रथम परिव्राजक था। परिव्राजक मरीचि बाद में भगवान के साथ विचरण करता रहा। मरीचि ने अनेक जिज्ञासुओं को दशविधि श्रमण-धर्म की शिक्षा दी और भगवान का शिष्यत्व स्वीकार करने को प्रेरित किया। सम्राट भरत के एक प्रश्न के उत्तर में भगवान ने कहा था कि इस सभा में एक व्यक्ति ऐसा भी है जो मेरे बाद चलने वाली 24 तीर्थंकरों की परम्परा में अंतिम तीर्थंकर बनेगा और वह है - मरीचि । अपने पुत्र के इस भावी उत्कर्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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