________________
भगवान ऋषभदेव
5
नक्षत्र का समय था; अनेक नरेशों सहित 4000 पुरुषों ने भगवान के साथ ही दीक्षा ग्रहण करली। अपने लक्ष्य और मार्ग से परिचित भगवान ऋषभदेव तो साधना-पथ पर निरन्तर अग्रसर होते रहे किन्तु इस ज्ञान से रहित अन्य लोग कठोर तप से वियलित हो गये और नाना प्रकार की भ्रान्तियों में ग्रस्त होकर अस्त-व्यस्त हो गये।
साधना
भगवान ऋषभदेव कठोर तप और ध्यान की साधना करते हुए जनपद में विचरण करने लगे। दृढ़ मौन उनकी साधना का विशिष्टि अंग था। श्रद्धालु जनता का अपार समूह अपार धनवैभव की भेंट के साथ उनके स्वागत को उमड़ा करता था। ऐसे प्रतापी पुरुष के लिए अन्नादि की भेंट को वे तुच्छ मानते थे। लोगों के इस अज्ञान से परिचित ऋषभदेव अपनी साधना में अटल रहे कि प्राणी को अन्न की परमावश्यकता होती है, मणि माणिक्य की नहीं। इसी प्रकार एक वर्ष से भी कुछ अधिक समय निराहारी अवस्था मे ही व्यतीत हो गया।
प्रभु ऋषभदेव के पुत्र बाहुबली का पौत्र श्रेयांसकुमार उन दिन गजपुर का नरेश था। एक रात्रि को उसने स्वप्न देखा कि वह मेरु पर्वत को अमृत से सींच रहा है। स्वप्न के भावी फल पर विचार करता हुआ श्रेयांसकुमार प्रात: राजप्रासाद के गवाक्ष में बैठा ही था कि नगर में ऋषभदेव का पदार्पण हुआ। जनसमूह की विविध भेटों को संकेत मात्र से अस्वीकार करते हुए वे अग्रसर होते जा रहे थे। श्रेयांसकुमार को लगा जैसे सचमुच सुमेरु ही उसके भवन की ओर गतिशील है। वह प्रभु सेवा में पहुँचा और उनसे अपना आंगन पवित्र करने की अनुनय-विनय की। उसके यहाँ इक्षुरस के कलश आये ही थे। राजा ने प्रभु से यह भेंट स्वीकार करने श्रद्धापूर्वक आग्रह किया। करपात्री भगवान ऋषभदेव ने एक वर्ष के निराहार के पश्चात् इक्षुरस का पान किया। देवताओं ने दुंदुभी का घोषकर हर्ष व्यक्त किया और पुष्प, रत्न, स्वर्णादि की वर्षा की।
केवलज्ञान
। एक हजार वर्ष पर्यन्त भगवान ने समस्त ममता को त्यागकर, एकान्त सेवी रहते हुए कठोर साधना की और आत्म-चिन्तन में लीन रहे। साधना द्वारा ही सिद्धि सम्भव है और पुरुषार्थ ही पुरुष को महापुरुष तथा आत्मा को परमात्मा पद प्रदान करता है आदि सिद्धान्तों का निर्धारण ही नहीं किया, प्रभु ने उनको अपने जीवन में भी उतारा था। पुरिमताल नगर के बाहर शकटमुख उद्यान में फाल्गुन कृष्णा एकादशी को अष्टम तप के साथ भगवान को केवलज्ञान की शुभ प्राप्ति हुई। परम शुक्लध्यान में लीन प्रभु को लगा जैसे आत्मा पर से घनघाती कर्मों का आवरण दूर हो गया है और सर्वत्र दिव्य प्रकाश व्याप्त हो गया है, जिससे समस्त लोक प्रकाशित हो उठा है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org