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________________ चौबीस तीर्थंकर इन विकारों को परास्त करने के लिए भगवान ने सत्ता, वैभव और सांसारिक सुखों को त्यागकर योग का मार्ग अपनाने का संकल्प किया। वे मानवमात्र को कल्याण का मार्ग दिखाना चाहते थे। भगवान के इस कृतित्व ने उन्हें अत्युच्च गौरव प्रदान किया और तीर्थंकरत्व की गरिमा से अलंकृत कर दिया। जन्म-वंश अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे का अन्तिम चरण चल रहा था। तभी चैत्र कृष्णा अष्टमी को माता मरुदेवा ने भगवान ऋषभदेव को जन्म दिया। कुलकर वंशीय नाभिराजा आपके पिता थे। पुत्र के गर्भ में आने पर माता ने 14 दिव्य स्वप्नों का दर्शन किया था जिनमें से प्रथम स्वप्न वृषभ सम्बन्धी था। नवजात शिशु के वक्ष पर भी वृषभ का ही चिह्न था अत: पुत्र को ऋषभकुमार नाम से ही पुकारा जाने लगा। ऋषभकुमार का हृदय परदुःखकातर एवं परम दयालु था। इस सम्बन्ध में उनके जीवन के अनेक प्रसंग स्मरण किये जाते हैं। एक प्रसंग तो ऐसा भी है जिसने आगे चलकर उनके जीवन में बहुत बड़ी भूमिका निभायी। बालक-बालिकाओं का एक युगल क्रीड़ामग्न था। यह युग्म ऐसा था जो प्रचलित प्रथानुसार भावी दाम्पत्य जीवन में एक-दूसरे का साथी होने वाला था। ताल वृक्ष के तले खेलते एक युगल पर दुर्भाग्यवश ताल का पका हुआ फल गिर पड़ा और बालक की मृत्यु हो गयी। बिलखती बालिका अकेली छूट गयी। भगवान का हृदय पसीज गया। बालमृत्यु की यह असाधारण और अभूतपूर्व घटना थी, जिससे सब दिचलित हो गये थे। वियुक्त बालिका को सब लोग ऋषभदेव के पास लाये और भगवान ने इस बालिका को यथासमय अपनी जीवन संगिनी बनाने का वचन दिया। उचित वय प्राप्ति पर ऋषभकुमार ने उस कन्या 'सुनन्दा' के साथ विवाह कर अपने वचन को पूरा किया और विवाह- परम्परा को एक नया मोड़ दिया। साथ ही अपने युगल की कन्या सुमंगला से भी विवाह किया और प्रचलित परिपाटी का निर्वाह किया। रानी सुनन्दा ने परम तेजस्वी पुत्र बाहुबली और पुत्री सुन्दरी को तथा रानी सुमंगला ने भरत सहित 99 पुत्रों एवं पुत्री ब्राह्मी को जन्म दिया। यथासमय पिता नाभिराज ऋषभकुमार को समस्त राजसत्ता सौंप कर निवृत्तिमय जीवन व्यतीत करने लगे। संसार- त्याग सांसारिक सुख- वैभव में जीवन-यापन करते हुए भी भगवान ऋषभदेव सर्वथा वीतरागी बने रहे। योग्य वय हो जाने पर उन्होंने अयोध्या के सिंहासन पर भरत को आसीन किया, बाहुबली को तक्षशिला का नरेश बनाया तथा शेष युवराजों की योग्यतानुसार अन्य राज्यों का स्वामी बनाकर वे संसार त्याग कर साधना-लीन होने को तत्पर हुए। उनके इस त्याग का व्यापक प्रभाव हुआ। यह महान् घटना चैत्र कृष्णा अष्टमी की है, जब उत्तराषाढ़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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