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भगवान ऋषभदेव
ऋषभदेव के लिए चिन्तन का द्वार खोल दिया। इस अशान्ति और क्लेश के मूल कारण के रूप में उनहोंने अभाव की परिस्थिति को पाया और अपनी प्रजा को उद्यम की ओर उन्मुख कर दिया। भगवान ने कृषि द्वारा धरती से अन्न उपजाना सिखाया। धरती माता ने अन्न का दान दिया जिसे अबोध मानव यों ही कच्चा खाकर उदर-पीड़ा से ग्रस्त होने लगा। भगवान ने यह बाधा भी दूर की। उन्होंने अग्नि प्रज्वलित की और अन्न को पका कर उसे खाद्य का रूप देना सिखाया। प्रजा की यह बाधा भी दूर हुई। श्रद्धावश अग्नि को 'देवता' माना जाने लगा।
धीरे-धीरे मानव सभ्यता का और भी विकास होने लगा। अब अग्नि की प्रचुरता तो हो ही गयी थी। भगवान ने उपयोगी वस्तुओं के विनिमय की कला सिखायी और इस प्रकार व्यवसाय भी प्रारम्भ हुआ। यह सब श्रमसाध्य कार्य था, किन्तु कुछ प्रमादी और निरुद्यमी लोगों में परिश्रम करने के स्थान पर दूसरों की सम्पदा को छल अथवा बलपूर्वक हड़पने की प्रवृत्ति पनपने लगी। अत: भगवान ने सम्पदा की रक्षा का उपाय भी सिखाया। इस प्रकार समाज में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ग बने और विकसित होते चले गये। अब मानव-समुदाय एक समाज का रूप ग्रहण करता जा रहा था। अत: पारस्परिक व्यवहार आदि के कुछ नियमों की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। यह विवेक-जागरण से ही संभव था, अत: शिक्षा का प्रचार अनिवार्य हो गया। भगवान ने यह कार्य अपनी पुत्रियों ब्राह्मी और सुन्दरी को सौंपा। उन्होंने स्वयं ब्राह्मी को अक्षर ज्ञान और सुन्दरी को गणित का ज्ञान आदि चौसठ कलाओं से परिचित कराकर इस योग्य बनाया और निर्देश दिया- "पुत्रियो! तुम मनुष्यों को इन विद्याओं का ज्ञान दो, समाज को शिशित बनाओं। शिक्षा के साथ सदाचार, विनय, कला एवं शिल्प का विकास करो।"
__स्पष्ट है कि भगवान ऋषभदेव ने मानव सभ्यता और मानवीयता का वह बीज वपन किया था जो काल का उर्वरा क्षेत्र पाकर विशाल वट तरु के रूप में आज अनेकानेक गुणावगुणों सहित दृष्टिगत होता है। भगवान ने मनुष्य जाति को भौतिक सुखों और मानवता से युक्त तो किया ही; इससे कहीं अधिक महत्त्वमयी सम्पदा से भी मानवता को अलंकृत करने की एक श्रेष्ठ उपलब्धि भी उनकी ही रही है। यह उपलब्धि उनके कृतित्व का श्रेष्ठतम अंश है और वह है-आध्यात्मिक गति। उन्होंने अपनी प्रजा की भौतिक सुख-सुविधा के लिए घोर परिश्रम किया। स्वयं भी इनका पर्याप्त उपभोग किया, किंतु वे इसमें खोये कभी नहीं। अनुरक्ति के स्थान पर अनासक्ति ही उनके आचरण की विशेषता बनी रही। स्वयं भगवान का सन्देश-कथन इस सन्दर्भ में विशेष उल्लेखनीय है, जो उनके पुत्रों के प्रति किया गया था
.यह विकास अपूर्ण है। केवल भोग ही हमारे जीवन का लक्ष्य नहीं है। हमारा ध्येय होना चाहिए परम आत्म- शान्ति की प्राप्ति। इसके लिए काम, क्रोध, मद, मोह आदि विकारों का ध्वंस आवश्यक है।"
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