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________________ चौबीस तीर्थंकर सुनकर साथियों सहित दीक्षा ग्रहण कर उत्कृष्ट संयम की साधना की। दसवें भव में जीवानन्द वैद्य का जीव 12वें देवलोक में उत्पन्न हुआ। ग्यारहवें भव में पुष्कलावती विजय में वज्रनाभ नामक चक्रवर्ती बने और संयमग्रहण कर 14 पूर्वो का अध्ययन किया और अरिहन्त, सिद्ध, प्रवचन प्रभृति 20 निमित्तों की आराधना कर तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध किया। अन्त में मासिक संलेखनापूर्वक पादपोपगमन संथारा कर आयुष्य पूर्ण किया, और वहाँ से 12वें भव में सर्वार्थसिद्धि विमान में उत्पन्न हुए और 13वें भव में विनीता नगरी में ऋषभदेव के रूप में जन्म ग्रहण किया। मानव संस्कृति का उन्नयन भगवान ऋषभदेव का जन्म मानव इतिहास के जिस काल विशेष में हुआ, उस परिप्रेक्ष्य में सोचा जाय तो हम पाएँगे कि भगवान ने मानव-संस्कृति एवं सभ्यता का अथवा यूं कहा जाय कि एक प्रकार से समग्र मानवता का ही शिलान्यास किया था। इस महती भूमिका के कारण उनके चरित्र का जो महान स्वरूप गठित होता है, वह साधारण मापदण्डों के माध्यम से मूल्यांकन से परे की वस्तु है। मानवीय सभ्यता का अति प्रारम्भिक एवं अनिश्चित चरण चल रहा था। अन्य पशुओं एवं मनुष्य में तब कोई उल्लेखनीय अन्तर न था। पशुवत् आहार-विहारादि की सामान्य प्रक्रिया में व्यस्त मनुष्य सर्वथा प्रकृति पर ही निर्भर था। वह अपने विवेक अथवा कौशल के सहारे प्राकृतिक वैभव से अपने पक्ष में अधिक सुविधाएँ जुटा लेने की क्षमता नहीं रखता था। तरु तले बसेरा करने वाला वह प्राणी वल्कल वस्त्रों से शीतातप के आघातों से अपनी रक्षा करता, वन्य कंद-मूलफलादि सेवन कर क्षुधा-तृप्ति करता और सरितादि के निर्मल-जल से तृषा को शान्त कर लिया करता था। सीमित अभिलाषाओं का संसार ही मनुष्य का प्राप्य था। नर और नारी का युगल एक युगल सन्तति को जन्म देता, सन्तोष का जीवन व्यतीत करता और जीवन-लीला को समाप्त कर लिया करता था। शील और सन्तोष की साकार परिभाषा उस काल के मानव में दृष्टिगत हो सकती थी। मोह, लोभ, ममता, संग्रहादि की प्रवृत्तियाँ तब तक मनुष्य को स्पर्श भी न कर पायी थीं। ___ जीवन की परिस्थितियाँ वस्तुत: स्वर्गापम थीं, किन्तु समय-चक्र सदा गतिशील रहता है। मानव-जीवन परिवर्तित होने लगा। उधर तो निरन्तर उपभोग से प्राकृतिक सम्पदा क्रमश: कम होने लगी और इधर उपभोक्ताओं की संख्या में भी वृद्धि होने लगी। परिणामत: अभाव की स्थिति आने लगी। मनुष्यों में लोभ और फलत: संग्रह की प्रवृत्ति ने जन्म लिया। छीना-झपटी ओर पारस्परिक कलह होने लगा। कदाचित मानव-विकारों का यह प्रथम चरण ही था। इसी काल में भगवान ऋषभदेव का प्रादुर्भाव हुआ था और सामयिक परिस्थितियों में मानव-कल्याण की दिशा में जो महान योगदान उनकी विलक्षण प्रतिभा का रहा, वह मानव इतिहास का एक अविस्मरणीय प्रसंग बन गया। प्रजा की इस दशा ने राजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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