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भगवान ऋषभदेव
(चिन्ह-वृषभ) जैन जगत्, संस्कृति और धर्म का आज जो सुविकसित एवं परिष्कृत स्वरूप हमें दिखाई देता है, उसके मूल में महान साधकों का मौलिक योगदान रहा है। तीर्थंकरों की एक समृद्ध परम्परा को इसका सारा श्रेय है। वर्तमान काल के तीर्थंकर जिसकी अन्तिम कड़ी प्रभु महावीर स्वामी थे और इस कड़ी के आदि उन्नायक भगवान ऋषभदेव थे। उनके मौलिक चिन्तन ने ही मानव-जीवन और व्यवहार के कतिपय आदर्श सिद्धान्तों को निरूपित किया था; और वे ही सिद्धांत कालान्तर में युग की अपेक्षाओं के अनुरूप परिवर्धित, विकसित और संपुष्ट होते चले गये।
पूर्व-भव
श्रमण संस्कृति भारत की एक महान् संस्कृति है, वह संस्कृति दो धाराओं में विभक्त है, जिसे जैन संस्कृति और बौद्ध संस्कृति के नाम से कहा गया है। दोनों धाराओं ने अपने आराध्य देव तीर्थंकर या बुद्ध के पूर्वभवों का चित्रण किया है। जातक कथा में बुद्धघोष ने तथागत बुद्ध के 547 भवों का वर्णन किया है। बुद्ध ने बोधिसत्व के रूप में राजा, तपस्वी, वृक्ष, देवता, हाथी, सिंह, कुत्ता, बन्दर, आदि अनेक जन्म ग्रहण किये और इन जन्मों में किस प्रकार निर्मल जीवन जीकर बुद्धत्व को प्राप्त किया-यह प्रतिपादन किया गया है। बुद्धत्व एक जन्म की उपलब्धि नहीं अपितु अनेक जन्मों के प्रयास का प्रतिफल था। इसी प्रकार तीर्थंकर भी अनेक जन्मों के प्रयास के पश्चात् बनते हैं। श्वेताम्बर ग्रंथों में ऋषभदेव के 13 भवों का उल्लेख है। प्रथम भव में ऋषभदेव का जीव धन्ना सार्थवाह बना जिसने अत्यन्त उदारता के साथ मुनियों को धृत- दान दिया और फलस्वरूप उसे सम्यक्त्व की उपलब्धि हुई। दूसरे भव में उत्तरकुरु भोगभूमि में मानव बने और तृतीय भव में सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुए। चतुर्थ भव में महाबल हुए एवं इस भव में ही श्रमणधर्म को भी स्वीकार किया। पाँचवें भव में ललिताङ्ग. देव हुए, छठे भव में वज्रजंघ तथा सातवें भव में उत्तरकुरु भोगभूमि में युगलिया हुए। आठवें भव में सौधर्मकल्प में देव हुए। नववें भव में जीवानन्द नामक वैद्य हुए। प्रस्तुत भव में अपने स्नेही साथियों के साथ कृमिकुष्ठ रोग से ग्रसित मुनि की चिकित्सा करके मुनि को पूर्ण स्वस्थ किया। मुनि के तात्त्विक प्रवचन को
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