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________________ भगवान ऋषभदेव अधीनता स्वीकार करलो यह भी अशोभनीय है । इस अधीनता से तो यह स्पष्ट होगा कि आत्मसम्मान और क्षत्रियोचित मर्यादाओं का त्याग कर भी तुम सांसारिक सुखोपभोग के लिए लालायित हो। इस प्रकार नश्वर और असार विषयों के पीछे भागना तुम जैसे पराक्रमियों के लिए क्या लज्जा का विषय नहीं होगा ? * विजय प्राप्त करने की लालसा तुम लोगों में भी उतनी ही बलवती है, जितनी भरत के मन में! पुत्रो, विजयी बनो, अवश्य बनो, किन्तु भरत पर विजय प्राप्त करने की कामना त्याग दो। यह तो सांसारिक ओर अतिक्षुद्र विजय होगी, जो तुम्हें विषयों में अधिकाधिक ग्रस्त करती चली जायगी । विजय प्राप्त करो तुम स्वयं पर, अपने अन्तर के विकारों पर विजयी होना ही श्रेयस्कर है। मोह और तृष्णा रूपी वास्तविक और घातक शत्रुओं का दमन करो। इस प्रकार की विजय ही आगे से आगे की नयी विजयों के द्वार खोल कर अनन्त शान्ति तथा शाश्वत सुख के लक्ष्य तक तुम्हें पहुँचाएगी । त्याग दो सांसारिक एषणाओं और विकारों को। नश्वर विषयों से चित्त को हटाकर अनासक्त हो जाओ और साध जागृत करो - सच्चे आत्म-कल्याण के लिए । 9 इस गंभीर और कल्याणकारी देशना ने पुत्रों का कायापलट ही कर दिया। वे चिन्तन में लीन बैठे रह गये और विराग की उत्कट भावना उनके हृदयों में ठाठें मारने लगी। सांसारिक भोग- लालसा से वे अनासक्त हो गये। एक स्वर में सभी ने अब भगवान से निवेदन किया कि 'हमें आज्ञा दें प्रभु कि हम भी आपके मार्ग पर अनुसरण करें। पंच महाव्रत रूप धर्म स्वीकार कर ये सभी भरत - अनुज भगवान के शिष्य बन गये। महाराज भरत के लिए इन 98 भाइयों ने अपने- अपने राज्यों का त्याग कर दिया और स्वयं आत्म-कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हो गये। भगवान की अगणित देशनाओं में से अपने पुत्रों के प्रति दी गयी यह देशना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। भरत ने जब अपने इन भाइयों का यह आचरण सुना तो उसके हृदय पर बड़ा गहरा आघात हुआ। वह अपने बन्धुओं के पास आया और उनसे अपने- अपने राज्य पुनः ग्रहण कर निर्बाध सत्ता का भोग करने को कहा। किन्तु ये राज्य तो अब उनके लिए अति तुच्छ थे- वे तो अति विशाल और अनश्वर राज्य को प्राप्त कर चुके थे। पुत्र बाहुबली को केवलज्ञान भगवान का यह द्वितीय पुत्र था जो एक सशक्त और शूरवीर शासक था। जब तक यह स्वाधीन राज्य - भोग करता रहे-भरत एकछत्र साम्राजय का स्वामी नहीं कहला सकता था। अतः अपनी कामनाओं का बन्दी भरत इसे अपने अधीन करने की योजना बनाने लगा। उसने अपना दूत बाहुबली के पास भेजकर सन्देश पहुँचाया कि मेरी अधीनता स्वीकार करलो, या फिर भीषण संघर्ष और विनाश के लिए तत्पर हो जाओ। यह सन्देश प्राप्त कर तेजस्वी भूपति बाहुबली की त्योरियाँ चढ़ गयीं। क्रोधित होकर राजा ने कहा कि अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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