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आचार्य यतिवृषभ,' आचार्य जिनसेन आदि ने तीर्थंकरों के नाम के साथ ईश्वर और स्वामी पदों का भी प्रयोग किया है। ऐतिहासिक दृष्टि से यतिवृषभ का समय चतुर्थ शताब्दी के आस-पास माना जाता है और जिनसेन का 9वीं शताब्दी। तो चतुर्थ शताब्दी में तीर्थंकरों के नाम के साथ 'नाथ' शब्द व्यवहृत होने लगा था।
तीर्थंकरों के नाम के साथ लगे हुए नाथ शब्द की लोकप्रियता शनैः शनैः इतनी अत्यधिक बढ़ी कि शैवमतानुयायी योगी अपने नाम के साथ 'मत्स्येन्द्रनाथ', "गोरखनाथ" प्रभृति रूप से नाथ शब्द का प्रयोग काने लगे। फलस्वरूप प्रस्तुत सम्प्रदाय का नाम ही 'नाथ सम्प्रदाय' के रूप में हो गया।
- जैनेतर परम्परा के वे लोग, जिन्हें इतिहास व परम्परा का परिज्ञान नहीं, वे व्यक्ति आदिनाथ, अजितनाथ, पारसनाथ, के नाम पढ़कर भ्रम में पड़ जाते हैं चूंकि गोरखनाथ की परम्परा में भी नीमनाथी पारसनाथी हुए हैं। वे यह निर्णय नहीं कर पाते कि गोरखनाथ से नेमिनाथ या पारसनाथ हुए, या नेमिनाथ पारसनाथ से गोरखनाथ हुए? यह एक ऐतिहासिक सत्य तथ्य है कि नाथ सम्प्रदाय के मूल-प्रवर्तक मत्स्येन्द्रनाथ हैं, उनका समय ईसा की आठवीं शताब्दी माना गया है। जबकि तीर्थंकर आदिनाथ, नेमिनाथ, पारसनाथ आदि को हुए जैन दृष्टि से हजारों लाखों वर्ष हुए हैं। भगवान पार्श्व से नेमिनाथ 83 हजार वर्ष पूर्व हुए थे। अत: काल-गणना की दृष्टि से दोनों में बड़ा मतभेद है। यह स्पष्ट है कि गोरखनाथ से नेमनाथ या पारसनाथ होने की तो संभावना ही नहीं की जा सकती। हाँ, सत्य यह है कि नेमिनाथ और पारसनाथ पहले हुए हैं अत: उनसे गोरखनाथ की संभावना कर सकते हैं, किन्तु गहराई से चिंतनमनन करने से यह भी सही ज्ञात नही होता, चूँकि भगवान पार्श्व विक्रम सम्वत् 725 से भी पूर्व हो चुके थे, जबकि मूर्धन्य मनीषियों ने गोरखनाथ को बप्पारावल के समकालीन माना है। यह बहुत कुछ संभव है कि भगवान नेमिनाथ की अहिंसक क्रान्ति ने यादववंश में अभिनव जागृति का संचार कर दिया था। भगवान पार्श्व के कमठ-प्रतिबोध की घटना ने तापसों में भी विवेक का संचार किया था। उन्हीं के प्रबल प्रभाव से नाथ परम्परा के योगी प्रभावित हुए हों, और नीमनाथी, पारसनाथी परम्परा प्रचलित हुई हो। डाक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसी सत्य-तथ्य को इस रूप में प्रस्तुत किया है
'चाँदनाथ संभवत: वह प्रथम सिद्ध थे जिन्होंने गोरखमार्ग को स्वीकार किया था। इसी शाखा के नीमनाथी और पारसनाथी नेमिनाथ और पार्श्वनाथ नामक जैन तीर्थंकरों के
27 रिसहेसरस्स भरहो, सगरो अजिएसरस्स पच्चक्खं।
-तिलो० 41283 28 महापुराण 14161, पृ० 319 29 हमारी अपनी धारणा यह है कि इसका उदय लगभग 8वीं शताब्दी के आस-पास
हुआ था। मत्स्येन्द्रनाथ इसके मूल प्रवर्तक थे। देखिए-हिन्दी की निर्गुण काव्यधारा और उसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि, पृ० 327
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