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तीर्थंकर और नाथ सम्प्रदाय
प्रचीन जैन, बौद्ध और वैदिक वाङ्मय का अनुशीलन-परिशीलन करने से सहज ही ज्ञात होता है कि तीर्थंकरों के नाम ऋषभ, अजित, सम्भव आदि के रूप में मिलते हैं? किन्तु उनके नामों के साथ नाथ- पद नहीं मिलता। यहाँ सहज ही एक प्रश्न खड़ा हो सकता है कि तीर्थंकरों के नाम के साथ 'नाथ' शब्द कब और किस अर्थ में प्रयुक्त होने लगा?
शब्दार्थ की दृष्टि से चिन्तन करते हैं तो 'नाथ' शब्द का अर्थ स्वामी या प्रभु होता है। अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति को 'योग' और प्राप्य वस्तु के संरक्षण को 'क्षेम' कहा जाता है। जो योग और क्षेम को करने वाला होता है वह 'नाथ' कहलाता है।2 अनाथी मुनि ने श्रेणिक से कहा-गृहस्थ जीवन में मेरा कोई नाथ नहीं था। मैं मुनि बना और नाथ हो गया। अपना, दूसरों का और सब जीवों का।
दीर्घनिकाय में दस नाथकरण धर्मों का निरूपण है, उसमें भी क्षमा, दया, सरलता आदि सद्गुणों का उल्लेख है।4 जो इन सद्गुणों को धारण करता है वह नाथ है।
तीर्थंकरों का जीवन सद्गुणों का अक्षय कोष है। अत: उनके नाम के साथ नाथ उपपद लगाना उचित ही है।
भगवती सूत्र में भगवान महावीर के लिए 'लोगनाहेणं' यह शब्द प्रयुक्त हुआ है और आवश्यक सूत्र में अरिहंतों के गुणों का उत्कीर्तन करते हुए 'लोगनाहाणं' विशेषण आया
सुप्रसिद्ध दिगदम्बर आचार्य यतिवृषभ ने अपने तिलोयपण्णत्ती ग्रन्थ में तीर्थंकारों के नाम के साथ नाथ शब्द का प्रयोग किया है। जैसे
"भरणी रिक्खम्मि संतिणाहो य"25 'विमलस्य तीसलक्रवा' अणतणाहस्स पंचदसलक्खा"26
21 (क) समवायाग. टीका, (ख) आवश्यकसूत्र, (ग) नन्दीसूत्र। 22 नाथ: योगक्षेम विधाता।
-उत्तराध्ययन वृहवृत्ति पत्र 473 23 ततो हं नाहो जाओ अप्पणो य परस्स य। सव्वेसिं चेव भूयाणं तसाण थावराण य।।
-उत्तरा० 2035 24 दीघनिकाय 3111, पृ० 312 - 313 25 तिलोयपण्णत्ती 4/541 26 वही, 4599
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