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________________ वृहदारण्यक के याज्ञवल्क्य कुषीतक के पुत्र कहोल से कहते हैं- “यह वही आत्मा है, जिसे ज्ञान लेने पर ब्रह्मज्ञानी पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा से मुँह फेर कर ऊपर उठ जाते हैं। भिक्षा से निर्वाह कर सन्तुष्ट रहते हैं। 48 जो पुत्रैषणा है वही लोकैषणा है । " 17 इसिभासियं में भी इसिभासिय को याज्ञवल्क्य एषणात्याग के पश्चात् भिक्षा से सन्तुष्ट रहने की बात कहते हैं। ” तुलनात्मक दृष्टि से जब हम चिन्तन करते है तब ज्ञात होता है कि दोनों के कथन में कितनी समानता है। वैदिक विचारधारा के अनुसार सन्तानोत्पत्ति को आवश्यक माना है । वहाँ पर पुत्रैषणा के त्याग को कोई स्थान नहीं है । वृहदारण्यक में एषणा त्याग का जो विचार आया है वह श्रमण संस्कृति की देन है। 18 एम० विण्टरनिट्ज ने अर्वाचीन उपनिषदों को अवैदिक माना है। किन्तु यह भी सत्य है कि प्राचीनतम उपनिषद् भी पूर्ण रूप से वैदिक विचाराधारा के निकट नहीं है, उन पर भगवान अरिष्टनेमि और भगवान पार्श्वनाथ की विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव है। यह माना जाता है कि यूनान के महान् दार्शनिक 'पाइथागोरस' भारत आये थे और वे भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमणों के सम्पर्क में रहे।" उन्होंने उन श्रमणों से आत्मा, पुनर्जन्म, कर्म आदि जैन सिद्धान्तों का अध्ययन किया और फिर वे विचार उन्होंने यूनान की जनता में प्रसारित किये। उनहोंने मांसाहार का विरोध किया। कितनी ही वनस्पतियों का भक्षण भी धार्मिक दृष्टि से त्याज्य बतलाया । उन्होंने पुनर्जन्म को सिद्ध किया। आवश्यकता है तटस्थ दृष्टि से इस विषय पर अन्वेषण करने की । भगवान पार्श्व का विहार क्षेत्र आर्य और अनार्य दोनों देश रहे हैं। दोनों ही देश के निवासी उनके परम भक्त रहे हैं। 20 इस प्रकार वैदिक साहित्य एवं उस पर विद्वानों की समीक्षाओं को पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि उसके प्राचीनतम ग्रन्थों एवं महावीरकालीन ग्रन्थों तक में जैन- संस्कृति, जैनदर्शन एवं धर्म की अनेक चर्चाएँ बिखरी हुई हैं, जो प्राक्तन काल में उसके प्रभाव और व्यापकता को सिद्ध करते हैं। 16 वृहदारण्यक० 3 | 5 | 1 17 इसिभासियाई 12/1-2 18 प्राचीन भारतीय साहित्य, पृ० 190 - 191 19 संस्कृति के अंचल में - देवेन्द्र मुनि, पृ० 33-34 20 देखिए - भगवान् पार्श्व : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ० 111-114 | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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