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है। नाना प्रकार के कर्ममार्ग में सुख की इच्छा रख कर प्रवृत्त होने वाला मानव परमात्मा को प्राप्त नहीं होता।'
उपनिषदों के अतिरिक्त महाभारत और अन्य पुराणों में भी ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ आत्मविद्या या मोक्ष के लिए वेदों की असारता प्रकट की गई है। आचार्य शंकर ने श्वेताश्वतर भाष्य में एक प्रसंग उद्धृत किया है। भृगु ने अपने पिता से कहा-'त्रयी धर्म-अधर्म का हेतु है। यह किंपाकफल के समान है। हे तात ! सैकड़ों दु:खों से पूर्ण इस कर्मकाण्ड में कुछ भी सुख नहीं है। अत: मोक्ष के लिए प्रयत्न करने वाला मैं त्रयी धर्म का किस प्रकार सेवन कर सकता हूँ।
गीता में भी यही कहा है कि त्रयी-धर्म (वैदिक धर्म) में लगे रहने वाले सकाम पुरुष संसार में आवागमन करते रहते हैं।" आत्मविद्या के लिए वेदों की असारता और यज्ञों के विरोध में आत्मयज्ञ की स्थापना यह वैदिकेतर परम्परा की ही देन है।
उपनिषदों में श्रमण संस्कृति के पारिभाषिक शब्द भी व्यवहृत हुए हैं। जैन आगम साहित्य में 'कषाय' शब्द का प्रयोग सहस्राधिक बार हुआ किन्तु वैदिक साहित्य में रागद्वेष के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। छान्दोग्योपनिषद् में 'कषाय' शब्द का राग-द्वेष के अर्थ में प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार ‘तायी' शब्द भी जैन साहित्य में अनेक स्थलों पर आया है पर वैदिक साहित्य में नहीं। जैन साहित्य की तरह ही माण्डूक्य उपनिषद् में भी ‘तायी' शब्द का प्रयोग हुआ है। 4
मुण्डक, छान्दोग्य प्रभृति उपनिषदों में ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ पर श्रमण संस्कृति की विचारधाराएँ स्पष्ट रूप से झलक रही हैं। जर्मन विद्वान हर्टले ने यह सिद्ध किया है कि मुण्डकोपनिषद् में प्राय: जैन-सिद्धान्त जैसा वर्णन है और जैन पारिभाषिक शब्द भी वहाँ व्यवहृत हुए हैं।
9 महाभारत शान्तिपर्व 201|10-11 10 त्रयी धर्ममधर्मार्थं किंपाकफलसन्निभः।
नास्ति तात! सुखं किंचिदत्र दुःखशताकुले।।
तस्मान् मोक्षाय यतता कथं सेव्या मया त्रयी। -श्वेताश्वतर उप० पृ० 23 1] भगवद्गीता 9/21 12 (क) छान्दोग्य उपनिषद् 851
(ख) वृहदारण्यक० 2/2/9/10 13 मृदित कषायाय-छान्दोग्य उपनिषद 7-26
शंकराचार्य ने इस पर भाष्य लिखा है-मृदित कषायाय वाऑदिरिव कषायो।
रागद्वेषादि दोष: सत्वस्य रंजना रूपत्वात्। 14 माण्डूक्य उपनिषद् 99 15 इण्डो इरेनियन मूलग्रन्थ और संशोधन, भाग 3
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