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________________ 42 (5) जैन आगम साहित्य में पूर्व साहित्य का उल्लेख है। पूर्व संख्या की दृष्टि से चौदह थे। आज वे सभी लुप्त हो चुके हैं। डाक्टर हर्मन जैकोबी की कल्पना है कि श्रुतांगों के पूर्व अन्य धर्मग्रन्थों का अस्तित्व एक पूर्व सम्प्रदाय के अस्तित्व का सूचक है । " ( 6 ) डाक्टर हर्मन जैकोबी ने मज्झिमनिकाय के एक संवाद का उल्लेख करते हुए लिखा है कि- 'सच्चक का पिता निर्ग्रन्थ मतानुयायी था । किन्तु सच्चक निर्ग्रन्थ मत को नहीं मानता था। अतः उसने गर्वोक्ति की कि मैंने नातपुत्र महावीर को विवाद में परास्त किया, क्योंकि एक प्रसिद्ध वादी जो स्वयं निर्ग्रन्थ नहीं, किन्तु उसका पिता निर्गंथ है। वह बुद्ध समकालीन है, यदि निर्ग्रथ सम्प्रदाय का प्रारम्भ बुद्ध के समय ही होता तो उसका पिता निर्ग्रन्थ धर्म का उपासक कैसे होता ? इससे स्पष्ट है कि निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय महावीर और बुद्ध से पूर्व विद्यमान था । ( 7 ) एक बार बुद्ध श्रावस्ती में विहार कर रहे थे। भिक्षुओं को आमंत्रित कर उन्होने कहा- ' - “भिक्षुओ ! मैं प्रव्रजित हो वैशाली गया । वहाँ अपने तीन सौ शिष्यों के साथ आराड काम रह रहे थे। मैं उनके सन्निकट गया। वे अपने जिन श्रावकों को कहते - त्याग करो, त्याग करो। जिन श्रावक उत्तर में कहते - हम त्याग करते हैं, हम त्याग करते हैं। “मैंने आराड कालाम से कहा- मैं भी आपका शिष्य बनना चाहता हूँ। उन्होंने कहा'जैसा तुम चाहते हो वैसा करो।' मैं शिष्य रूप में वहाँ रहने लगा। जो उन्होंने सिखलाया वह सभी सीखा। वह मेरी प्रखर बुद्धि से प्रभावित हुए। उन्होंने कहा- जो मैं जानता हूँ, वही यह गौतम जानता है। अच्छा हो गौतम हम दोनों मिलकर संघ का संचालन करें। इस प्रकार उन्होंने मेरा सम्मान किया । " - “मुझे अनुभव हुआ, इतना सा ज्ञान पाप नाश के लिए पर्याप्त नहीं। मुझे और गवेषणा करनी चाहिए। यह विचार कर मैं राजगृह आया । वहाँ पर अपने सात सौ शिष्यों के परिवार से उद्रक राम पुत्र रहते थे। वे भी अपने जिन श्रावकों को वैसा ही कहते थे। मैं उनका भी शिष्य बना। उनसे भी मैंने बहुत कुछ सीखा। उन्होंने भी मुझे सम्मानित पद दिया । किन्तु मुझे यह अनुभव हुआ कि इतना ज्ञान भी पाप क्षय के लिये पर्याप्त नहीं। मुझे और भी खोज करनी चाहिए, यह सोचकर मैं वहाँ से भी चल पड़ा। #791 प्रस्तुत प्रसंग में जिन श्रावक शब्द का प्रयोग हुआ है । वह यह सूचित करता है कि आराड कालाम, उद्रक राम पुत्र और उनके अनुयायी निर्ग्रन्थ धर्मी थे। यह प्रकरण 'महावस्तु' 90 The name (q) itself testifies to the fact that the Purvas were superseded by a new canon, for Purva means former, earlier.... Sacred Books of the East, Vol. XXII, Introduction, P. XLIV 91 Mahavastu : Tr. by J.J. Jones; Vol. II, pp. 114 117 के आधार से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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