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ग्रन्थ का है, जो महायान सम्प्रदाय का प्रमुखतम ग्रन्थ रहा है। महायान के त्रिपिटक संस्कृत भाषा में है। पालि त्रिपिटकों में जिस उद्देश्य से 'निगण्ठ' शब्द का प्रयोग हुआ, उसी अर्थ में यहाँ पर 'जिन श्रावक' शब्द का प्रयोग किया गया है।
यह स्पष्ट है कि बुद्ध ने जिन- श्रावकों के साथ रहकर बहुत कुछ सीखा। इससे यह सिद्ध होता है कि तथागत के पूर्व निर्ग्रन्थ धर्म था।
(8) धम्मपद की अट्ठकथा के अनुसार निर्ग्रन्थ वस्त्रधारी थे, ऐसा भी उल्लेख मिलता है, जो सम्भवत: भगवान पार्श्व की परम्परा के अस्तित्व को बतलाता है।
(9) अंगुत्तर निकाय में वर्णन है कि वप्प नामक एक निर्ग्रन्थ श्रावका था। उसी सुत्त की अट्ठकथा में यह भी निर्देश है कि वप्प बुद्ध का चूल पिता (पितृव्य) था। यद्यपि
जैन परम्परा में इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख नहीं है। उल्लेखनीय बात तो यह है, बुद्ध के पितृव्य का निर्ग्रन्थ धर्म में होना भगवान पार्श्व और उनके निर्ग्रन्थ धर्म की व्यापकता का स्पष्ट परिचायक है। बुद्ध के विचारों में यत्किंचित् प्रभाव आने का यह भी एक निमित्त हो सकता है।
तथागत बुद्ध की साधना पर भगवान पार्श्व का प्रभाव
भगवान पार्श्व की परम्परा से बुद्ध का सम्बन्ध अवश्य रहा है। वे अपने प्रमुख शिष्य सारिपुत्र से कहते हैं-सारिपुत्र! बोधि प्राप्ति से पूर्व मैं दाढ़ी-मूछों का झुंचन करता था। मैं खड़ा रहकर तपस्या करता था। उकडू बैठकर तपस्या करता था। मैं नंगा रहता था। लौकिक आचारों का पालन नहीं करता था। हथेली पर भिक्षा लेकर खाता था।
बैठे हुए स्थान पर आकर दिये हुए अन्न को, अपने लिए तैयार किये हुए अन्न को और निमन्त्रण को भी स्वीकार नहीं करता था। यह समस्त आचार जैन श्रमणों का है। इस आचार में कुछ स्थविरकल्पिक है, और कुछ जिनकल्पिक है। दोनों ही प्रकार के आचारों का उनके जीवन में सम्मिश्रण है। सम्भव है प्रारम्भ में गौतम बुद्ध पार्श्व की परम्परा में दीक्षित हुए हों।
92 Mahavastu : Tr. by J.J. Jones Vol. II, page 114 N. 93 धम्मपद अट्ठकथा, 22-8. 94 अंगुत्तरनिकाय- पालि, चतुस्कनिपात, महावग्गो, वप्प सुत्त 4-20-5 हिन्दी अनुवाद
पृ० 188 से 192. 95 अंगुत्तरनिकाय - अट्ठकथा, खण्ड 2, पृ० 559.
वप्पो त्ति दसबलस्सचुल्लपिता।। 96 (क) मज्झिमनिकाय-महासिंहनाद सुत्त ||1/2
(ख) भगवान बुद्ध, धर्मानन्द कोसाम्बी, पृ० 68-69 ।
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