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________________ 35 के मोक्ष-मन्तव्यों से अत्यधिक मिलता-जुलता है। उसे पढ़ते समय सहज ही ज्ञात होता है कि हम मोक्ष सम्बन्धी जैनागमिक वर्णन पढ़ रहे हैं। उन्होंने कहा सागर ! मोक्ष का सुख ही वस्तुत: समीचीन सुख है। जो अहर्निश धन-धान्य आदि के उपार्जन में व्यस्त है, पुत्र और पशुओं में ही अनुरक्त है वह मूर्ख है उसे यथार्थ ज्ञान नहीं होता। जिसकी बुद्धि विषयों में आसक्त है, जिसका मन अशान्त है, ऐसे मानव का उपचार कठिन है क्योंकि जो राग के बन्धन में बंधा हुआ है वह मूढ़ है तथा मोक्ष पाने के लिए अयोग्य है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह स्पष्ट है कि सगर के समय में वैदिक लोग मोक्ष में विश्वास नहीं करते थे। अत: यह उपदेश किसी वैदिक ऋषि का नहीं हो सकता, उसका सम्बन्ध श्रमण संस्कृति से है। यजुर्वेद में अरिष्टनेमि का उल्लेख एक स्थान पर इस प्रकार आया है-अध्यात्मयज्ञ को प्रकट करने वाले, संसार के भव्यजीवों को सब प्रकार से उपदेश देने वाले और जिनके उपदेश से जीवों की आत्मा बलवान होती है, उन सर्वज्ञ नेमिनाथ के लिए आहुति समर्पित करता हूँ।62 ___ डॉ. राधाकृष्णन ने लिखा है यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थंकरों का उल्लेख पाया जाता है। स्कन्दपुराण के प्रभासखण्ड में वर्णन है-अपने जन्म के पिछले भाग में वामन ने तप किया। उस तप के प्रभाव से शिव ने वामन को दर्शन दिये। वे शिव श्याम वर्ण, अचेल तथा पद्मासन से स्थित थे। वामन ने उनका नाम नेमिनाथ रखा। यह नेमिनाथ इस घोर कलिकाल में सब पापों का नाश करने वाले हैं। उनके दर्शन और स्पर्श से करोड़ों यज्ञों का फल प्राप्त होता है। महापुराण में भी अरिष्टनेमि की स्तुति की गयी है।64 महाभारत के अनुशासन पर्व, अध्याय 14 में विष्णु सहस्रनाम में दो स्थान पर 'शूर शौरिर्जनेश्वर:' पद व्यवहृत हुआ है। 61 महाभारत शान्तिपर्व, 288|5,6 62 वाजस्यनुप्रसव आवभूवेमात्र, विश्वा भुवनावि सर्वतः । स नेमिराज परियाति विद्वान् प्रजापुष्टि वर्धमानोऽस्मैस्वाहा:।। -वाजसनेयि-माध्यंदिन शुक्ल यजुर्वेद, अध्याय 9, मन्त्र 25, सातवलेकर संस्करण, विक्रम सं० 1984 63 भवस्य पचिमेभागे वामनेनतप:कृतम्। तेनैवत्तपसाकृष्टः, शिव: प्रत्यक्षताङ्गतः।। पद्मासन: समासीन: श्याममूर्तिः दिगम्बरः । नेमिनाथ: शिवोऽथैवं नामचक्रेऽस्यवामनः।। कलिकारे महाघोरे सर्वपापप्रणाशकः। दर्शनात् स्पर्शनादेव: कोटियज्ञ: फलप्रदः।। -स्कन्दपुराण, प्रभासखण्ड 64 कैलाशे विमलेरम्ये वृषभोऽयं जिनेश्वरः । चकार स्वावतारं च सर्वज्ञ: सर्वग: शिवः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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