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छान्दोग्योपनिषद में देवकीपुत्र श्रीकृष्ण को घोर आंगिरस ऋषि उपदेश देते हुए हैं-अरे कृष्ण ! जब मानव का अन्त समय सन्निकट आये तब उसे तीन वाक्यों का करना चाहिए
(1) त्वं अक्षतमसि-तू अविनश्वर है। (2) त्वं अच्युतमसि-तू एकरस में रहने वाला है। (3) त्वं प्राणसंशितमसि-तू प्राणियों का जीवनदाता है।
श्रीकृष्ण इस उपदेश को श्रवण कर अपिपास हो गये। उन्हें अब किसी भी प्रकार की शिक्षा की आवश्यतकता नहीं रही। वे अपने आपको धन्य अनुभव करने लगे। प्रस्तुत कथन
की तुलना हम जैन आगमों में आये हुए भगवान अरिष्टनेमि के भविष्य कथन से कर सकते हैं। द्वारिका का विनाश और श्रीकृष्ण की जरत्कुमार के हाथ से मृत्यु होगी-यह सुनकर श्रीकृष्ण चिन्तित होते हैं तब उन्हें भगवान उपदेश सुनाते हैं जिसे सुनकर श्रीकृष्ण सन्तुष्ट एवं खेदरहित होते हैं।54
ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद में भगवान अरिष्टनेमि को तार्य अरिष्टनेमि भी लिखा है।
स्वस्ति न इन्दोवृद्धश्रवाः स्वस्ति न पूषा विश्वदेवाः ।
स्वस्ति न स्तार्योऽरिष्टनेमिः स्वस्ति नो वृहस्पतिदधातुः।।58 विज्ञों की धारणा है कि अरिष्टनेमि शब्द का प्रयोग जो वेदों में हुआ है वह भगवान अरिष्टनेमि के लिए है।
महाभारत में भी ता_ शब्द का प्रयोग हआ है जो भगवान अरिष्टनेमि का ही अपर नाम होना चाहिए। उन्होंने राजा सगर को जो मोक्ष मार्ग का उपदेश दिया है वह जैनधर्म 53 तद्वैतद् घोरं आंगिरस, कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाचाऽपिपास एव स बभूत, सोऽन्तबेलायामेतत्त्रयं प्रतिपद्येताक्षतमस्यच्युतमसि प्राणसंशित मसीति।
___-छान्दोग्योपनिषद् प्र० 3, खण्ड 18 54 अन्तकृतृदशा, वर्ग 5, अ० 1 55 (क) त्वमूषु वाजिनं देवजूनं सहावानं तरुतारं रथानाम्। अरिष्टनेमि पृतनाजभाशु स्वस्तये तार्क्ष्यमिहा हुबेम।।
-ऋग्वेद 10|12|1781 (ख) ऋग्वेद 1116 56 यजुर्वेद 25/19,
57 सामवेद 39 58 ऋग्वेद ||1||6| 59 उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ० 7 60 एवमुक्तस्तदा तार्क्ष्यः सर्वशास्त्रविदांवरः।
विबुध्य सपदं चाग्रयां सद्वाक्यमिदमब्रतीत।। --महाभारत शान्तिपर्व 288|4
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