SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 32 अरिष्टनेमि भगवान अरिष्टनेमि बाईसवें तीर्थंकर हैं। आधुनिक इतिहासविद् जो साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह से मुक्त हैं और शुद्ध ऐतिहासिक दृष्टि से उम्पन्न हैं, वे भगवान अरिष्टनेमि को भी एक ऐतिहासिक महापुरुष मानते हैं। तीर्थंकर अरिष्टनेमि और वासुदेव श्री कृष्ण दोनों समकालीन ही नहीं, एक वंशोद्भव भाई-भाई हैं। दोनों अपने समय के महान् व्यक्ति हैं, किन्तु दोनों की जीवन दिशाएँ भिन्न-भिन्न रही हैं। एक धर्मवीर हैं तो दूसरे कर्मवीर है। एक निवृत्तिपरायण हैं तो दूसरे प्रवृत्तिपरायण। एक प्रवृत्ति के द्वारा लौकिक प्रगति के पथ पर अग्रसर होते हैं तो दूसरे निवृत्ति को प्रधान मानकर आध्यात्मिक विकास के सोपानों पर आरूढ़ होते हैं। भगवान अरिष्टनेमि के युग का गंभीरतापूर्वक पर्यालोचन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि उस युग के क्षत्रियों में मांसभक्षण की प्रवृत्ति पर्याप्त मात्रा में बढ़ गई थी। उनके विवाह के अवसर पर पशुओं का एकत्र किया जाना इस तथ्य को स्पष्ट करता है। हिंसा की इस पैशाचिक प्रवृत्ति की ओर जन सामान्य का ध्यान आकर्षित करने के लिए और क्षत्रियों को मांस-भक्षण से विरत करने के लिए श्री अरिष्टनेमि ने जो पद्धति अपनाई, वह अद्भुत और असाधारण थी, कनका विवाह किये बिना लौट जाना मानों समग्र क्षत्रिय-जाति के पापों का प्रायश्चित्त था। उसका बिजली का सा प्रभाव दूर-दूर तक और बहुत गहरा हुआ। एक सुप्रतिष्ठित महान् राजकुमार का दूल्हा बनकर जाना और ऐसे मौके पर विवाह किये बिना लौट जाना क्या साधारण घटना थी? भगवान अरिष्टनेमि का वह बड़े से बड़ा त्याग था और उस त्याग ने एक बार पूरे समाज को झकझोर दिया था। समाज के हित के लिए आत्म-बलिदान का ऐसा दूसरा कोई उदाहरण मिलना कठिन है। इस आत्मोत्सर्ग ने अभक्ष्य-भक्षण करने वाले और अपने क्षणिक सुख के लिए दूसरों के जीवन के साथ खिलवाड़ करने वाले क्षत्रियों की आँखें खोल दीं, आत्मालोचन के लिए विवश कर दिया और उन्हें अपने कर्तव्य एवं दायित्व का स्मरण करा दिया। इस प्रकार परम्परागत अहिंसा के शिथिल एवं विस्मृत बने संस्कारों को उन्होंने पुन: पुष्ट, जागृत व सजीव कर दिया और अहिंसा की संकीर्ण बनी परिधि को विशालता प्रदान की। पशुओं और पक्षियों को भी अहिंसा की परिधि में समेट लिया। जगत के लिए भगवान का यह उद्बोधन एक अपूर्व वरदान था और वह आज तक भी भुलाया नहीं गया है। वेद, पुराण और इतिहासकारों की दृष्टि से भगवान अरिष्टनेमि का क्या महत्त्व है, इस प्रश्न पर “भगवान अरिष्टनेमि और कर्मयोगी श्रीकृष्ण : एक अनुशीलन" ग्रन्थ में भगवान अरिष्टनेमि की ऐतिहासिकता' शीर्षक के अन्तर्गत प्रमाण-पुरस्सर विवेचन किया गया है। 47 जैनधर्म का मौलिक इतिहास, पृ० 329 से 241 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy