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________________ 31 भगवान शान्तिनाथ सोलहवें तीर्थंकर हैं। वे पूर्वभव में जब मेघरथ थे तब कबूतर की रक्षा की, यह घटना वसुदेवहिण्डी,42 त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र आदि में मिलती है तथा शवि राजा के उपाख्यान के रूप में वैदिक ग्रन्थ महाभारत में प्राप्त होती है और बौद्ध वाङ्मय में 'जीमूतवाहन' के रूप में चित्रित की गई है। प्रस्तुत घटना हमें बताती है कि जैन परम्परा केवल निवृत्ति रूप अहिंसा में ही नहीं, पर, मरते हुए की रक्षा के रूप में प्रवृत्ति रूप अहिंसा में भी धर्म मानती है। अठारहवें तीर्थंकर 'अर' का वर्णन 'अंगुत्तरनिकाय' में भी आता है। वहाँ पर तथागत बुद्ध ने अपने से पूर्व जो सात तीर्थंकर हो गये थे उनका वर्णन करते हुए कहा कि उनमें से सातवें तीर्थंकर 'अरक' थे।44 अरक तीर्थंकर के समय का निरूपण करते हुए कहा कि अरक तीर्थंकर के समय मनुष्य की आयु 60 हजार वर्ष होती थी। 500 वर्ष की लड़की विवाह के योग्य समझी जाती थी। उस युग में मानवों को केवल छह प्रकार का कष्ट था-(1) शीत, (2) उष्ण, (3) भूख, (4) तृषा, (5) मूत्र, (6) मलोत्सर्ग। इसके अतिरिक्त किसी भी प्रकार की पीड़ा और व्याधि नहीं थी। तथापि अरक ने मानव को नश्वरता का उपदेश देकर धर्म करने का सन्देश दिया। उनके उस उपदेश की तुलना उत्तराध्ययन के दसवें अध्ययन से की जा सकती है। जैनागम के अनुसार भगवान ‘अर' की आयु 84000 वर्ष है और उसके पश्चात् होने वाले तीर्थंकर मल्ली की आयु 55000 वर्ष की है। इस दृष्टि से 'अरक' का यम ‘भगवान् अर' और 'भगवती मल्ली' के मध्य में ठहरता है। यहाँ पर यह भी स्मरण रखना चाहिए कि 'अरक' तीर्थंकर से पूर्व बुद्ध के मत में 'अरनेमि' नामक एक तीर्थंकर और भी हुए हैं। बुद्ध के बताये हुए अरनेमि और जैन तीर्थंकर 'अर' संभवत: दोनों एक हों। उन्नीसवें तीर्थंकर मल्ली भगवती, बीसवें मुनिसुव्रत और इक्कीसवें तीर्थंकर नमि का वर्णन वैदिक और बौद्ध वाङ्मय में नहीं मिलता। ये सभी तीर्थंकर प्रागैतिहासिक काल में हुए हैं। 42 वसुदेवहिण्डी, 21 लम्भक 43 त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र 514 44 भूतपुव्वं भिक्खवे सुनेत्तोनाम सत्था अहोसि तित्थकरो कामेह वीतरागो... मुग-पक्व "अरनेमि "कुद्दालक "हत्थिपाल, जोतिपाल....अरको नाम सत्था अहोसि तित्थकरो कामेसु वीतरागो। अरकस्स खो पन, भिक्रववे, सत्थुनो अनेकानि सावकसतानि अहेसुं। --अंगुत्तरनिकाय, भाग 3, पृ० 256-257 सं० निभक्षु जगदीश कस्सपो, पालि प्रकाशन मंडल, बिहार राज्य 45 अंगुत्तरनिकाय, अरकसुत्त, भाग 3, पृ० 257 सम्पादक - प्रकाशक वही। 46 आवश्यक नियुक्ति गा० 325--227, 56 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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