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सूत्र
ऋगवेद के दूसरे स्थल पर केशी और ऋषभ का एक साथ वर्णन हुआ है। 20 जिस में यह ऋचा आयी है उसकी प्रस्तावना में निरुक्त के जो 'मुद्गलस्य हृता गावः' प्रभृति श्लोक अंकित किये गये हैं, उनके अनुसार मुद्गल ऋषि की गायें तस्कर चुरा कर ले गये थे। उन्हें लौटाने के लिए ऋषि ने केशी वृषभ को अपना सारथी बनाया, जिसके वचन मात्र से गायें आगे न भागकर पीछे की ओर लौट पड़ी। प्रस्तुत ऋचा पर भाष्य करते हुए आचार्य सायण ने पहले तो वृषभ और केशी का वाच्यार्थ पृथक् बताया किन्तु प्रकारान्तर से उन्होंने उसे स्वीकार किया है। 21
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मुद्गल ऋषि के सारथी ( विद्वान नेता ) केशी वृषभ जो शत्रुओं का विनाश करने के लिये नियुक्त थे, उनकी वाणी निकली, जिसके फलस्वरूप जो मुद्गल ऋषि की गायें (इन्द्रियाँ) जुते हुए दुर्धर रथ (शरीर ) के साथ दौड़ रही थीं वे विश्चल होकर मौद्गलानी ( मुद्गल की स्वात्मवृत्ति) की ओर लौट पड़ीं ।
सारांश यह है कि मुद्गल ऋषि की जो इन्द्रियाँ पराङ्मुखी थीं, वे उनके योग युक्त ज्ञानी नेता केशी वृषभ के धर्मोपदेश को सुनकर अन्तर्मुखी हो गईं।
जैन साहित्य के अनुसार जब भगवान ऋषभदेव साधु बने उसे समय उन्होंने चार मुष्टि केशों का लोच किया था । 22 सामान्य रूप से पाँच - मुष्टि केश लोच करने की परम्परा रही है। भगवान केशों का लोच कर रहे थे। दोनों भागों के केशों का लोच करना अवशेष था। उस समय आक्रेन्द्र की प्रार्थना से भगवान् ने उसी प्रकार रहने दिया। 23 यही कारण है कि केश रखने से वे केशी या केशरियाजी के नाम से विश्रुत हुए। जैसे सिंह अपने केशों के कारण से केशरी कहलाता है वैसे ही ऋषभेदव भी केशी, केशरी और केशरियाजी के नाम से पुकार जाते हैं।
20 कर्कदवे वृषभो युक्त आसीद्
अवावचीत् सारथिरस्य केशी ।
दुर्धर्युक्तस्य द्रवतः सहानस ऋच्छन्तिः मा निष्पदों मुद्गलानीम् ।।
--ऋग्वेद 10/102/6
21 अथवा अस्थ सारथिः सहायभूतः केशी प्रकृष्टकेशो वृषभः अवावचीत्
भृशमशब्दयत् इत्यादि ।
- सायणभाष्य
22 (क) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति - वक्षस्कार 2, सूत्र 30 (ख) सयमेव चउमुट्ठियं लोयं करेइ ।
(ग) उच्चरवान चतुसृभिर्मुष्टिभिः शिरसः कचान् ।। चतुसृभ्यो दिग्भ्यः शेषामिव दातुमना प्रभुः ।।
23 जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, वक्षस्कार 2, सूत्र 30 की वृत्ति
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- कल्पसूत्र, सूत्र 195
- त्रिषष्टि० 1|3|67
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