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________________ 25 वर्षा होकर बरसे और ब्रह्मावर्त में अपने पत्रों को ज्ञानोपदेश देकर स्वयं संन्यास ग्रहण किया। हाथ जोड़े हुए प्रस्तुत अष्टसिद्धियों को उन्होंने स्वीकार नहीं किया। ये ऋषभदेव मुनि परब्रह्म के अवतार बताये गये हैं। नरहरिदास ने भी उनकी अवतार कथा का वर्णन करते हुए इन्हें परब्रह्म, परमपावन व अविनाशी कहा है। ऋग्वेद में भगवान् श्री ऋषभदेव को पूर्वज्ञान का प्रतिपादक और दुःखों का नाश करने वाला बतलाते हुए कहा है- "जैसे जल भरा मेघ वर्षा का मुख्य स्रोत है, जो पृथ्वी की प्यास को बुक्षा देता है, उसी प्रकार पूर्व ज्ञान के प्रतिपादक ऋषभ महान् हैं उनका शासन वर दे। उनके शासन में ऋषि परम्परा से प्राप्त पूर्व ज्ञान आत्मा के शत्रुओं-क्रोधादिक का विध्वंसक हो। दोनों संसारी और मुक्त-आत्माएँ अपने ही आत्मगुणों से चमकती हैं। अत: वे राजा हैं। वे पूर्ण ज्ञान के आगार हैं और आत्मपतन नहीं होने देते।"4 तीर्थंकर ऋषभदेव ने सर्वप्रथम इस सिद्धान्त की उद्घोषणा की थी कि “मनुष्य अपनी शक्ति का विकास कर आत्मा से परमात्मा बन सकता है। प्रत्येक आत्मा में परमात्मा विद्यमान है जो आत्मसाधना से अपने देवत्व को प्रकट कर लेता है वही परत्मामा बन जाता है।" उनकी इस मान्यता की पुष्टि ऋग्वेद की ऋचा से होती है, “जिसके चार श्रृंगअनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य हैं। तीन पाद हैं-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। दो शीर्ष-केवलज्ञान और मुक्ति हैं तथा जो मन, वचन और काय इन तीनों योगों से बद्ध है (संयत है) उस ऋषभ ने घोषणा की कि महादेव (परमात्मा) मानव के भीतर ही आवास करता है।' अथर्ववेद और यजुर्वेद से भी इस मान्यता के प्रमाण मिलते हैं। कहीं-कहीं वे प्रतीक शैली में वर्णित हैं और कहीं-कहीं पर संकेत रूप से उल्लेख है। अमेरिका और यूरोप के वनस्पति-शास्त्रियों ने अपनी अन्वेषणा से यह सिद्ध किया है कि खाद्य गेहूँ का उत्पादन सबसे पहले हिन्दुकुश और हिमालय के मध्यवर्ती प्रदेश में हुआ।' सिन्धु घाटी की सभ्यता से भी यही पता लगता है कि कृषि का प्रारम्भ सर्वप्रथम इस देश 2 आठों सिद्धि भई सन्मुख जब करी न अंगीकार। जय जय जय श्री ऋषभदेव मुनि परब्रह्म अवतार।। -सूरसारावली पृ० 4 3 अवतार लीला। -हस्तलिखित 4 असूतपूर्वा वृषभो ज्यायनिया अरय शुरुधः सन्ति पूर्वीः दिवो न पाता विदथस्य धीभिः क्षत्रं राजाना पुदिवोदधाथे। -ऋग्वेद 52138 5 चत्वारि श्रृंगा त्रयो अस्य पादा द्वै शीर्ष सप्तहस्तासो अस्य। त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महादेवो मर्त्या आविवेश। -ऋग्वेद 6 अथर्ववेद 194214 7 बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन पृ० 52, लेखक-भरतसिंह उपाध्याय। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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