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ब्रह्माण्डपुराण में ऋषभदेव को दस प्रकार के धर्म का प्रवर्तक माना है। 89 श्रीमद्भगवत से भी इसी बात की पुष्टि होती है। वहाँ यह बताया गया है कि वासुदेव ने आठवाँ अवतार नाभि और मरुदेवी के यहाँ धारण किया। वे ऋषभ रूप में अवतरित हुए और उन्होंने सब आश्रमों द्वारा नमस्कृत मार्ग दिखलाया " एतदर्थ ही ऋषभदेव को मोक्षधर्म की विवक्षा से 'वासुदेवांश' कहा है।"
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ऋषभदेव के सौ पुत्र थे। वे सभी ब्रह्मविद्या के पारगामी थे।" उनके नौ पुत्रों को आत्मविद्या विशारद भी कहा है। उनके ज्योष्ठ पुत्र भरत तो महायोगी थे। 4 स्वयं ऋषभदेव को योगेश्वर कहा गया है।" उन्होंने विविध योगचर्याओं का आचरण किया था। जैन आचार्य उन्हें योगविद्या के प्रणेता मानते हैं। ” हठयोग प्रदीपिका में भगवान् ऋषभदेव को हठयोग विद्या के उपदेशक के रूप में नमस्कार किया है। "
ऋषभदेव अपने विशिष्ट व्यक्तित्व के कारण वैदिक परम्परा में काफी मान्य रहे हैं । पुत्र
महाकवि सूरदास ने उनके व्यक्तित्व का चित्रण करते हुए लिखा है - नाभि ने लिए यज्ञ किया उस समय यज्ञपुरुष" ने स्वयं दर्शन देकर जन्म लेने का वचन दिया जिसके फलस्वरूप ऋषभ की उत्पत्ति हुई । '
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चीर्णः ।
सूरसारावली में कहा गया है कि प्रियव्रत के वंश में उत्पन्न हरी के ही शरीर का नाम ऋषभदेव था। उन्होंने इस रूप में भक्तों के सभी कार्य पूर्ण किये।' अनावृष्टि होने पर स्वयं 89 इह इक्ष्वाकुकुलवंशोद्भवेन नाभिसुतेन मरुदेव्या नन्दनेन । महादेवेन ऋषभेण दसप्रकारों धर्मः स्वयपेव 90 अष्टमे मरुदेव्यां तु नाभेर्जात उरुक्रमः । दर्शयन् वर्त्म धीराणां सर्वाश्रमनमस्कृतम् । 91 तमाहुर्वासुदेवांशं मोक्ष धर्म विवक्षया । 92 अवतीर्णः सुतशतं, तस्यासीद् ब्रह्मपारगम् । 93 श्रमणा वातरशनाः आत्मविद्या विशारदाः ।
94 येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुणः आसीत् । भगवान ऋषभदेवो योगेश्वरः ।
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96 नानायोगचर्याचरणो भगवान् कैवल्यपतिर्ऋषभः ।
97 योगिकल्पतरुं नौमि देव देवं वृषवध्वजम् ।
98 श्री आदिनाथ नमोस्तु तस्मै येनोपदिष्टा हठयोगविद्या |
99 नाभि नृपति सुत हित जग कियौ |
जज्ञ पुरुष तब दरसन दियो ।
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-ब्रह्माण्डपुराण
- श्रीमद्भागवत 1|3|13 —श्रीमद्भागवत 11|2|16 -वही 11|2|16 -वही 11|2|20
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-वही 5/5/9
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- ज्ञानार्णव 1|2|
- सूरसागर, पृ० 150, पद 409
100 मैं हरता करता संसार में लैहौ नृप गृह अवतार ।
रिषभदेव तब जनमे आई, राजा के गृह बजी बधाई । -सरूसागर, पृ० 150 1 प्रियव्रत धरेउ हरि निज वपु ऋषभदेव यह नाम ।
किन्हें ब्याज सकल भक्तन को अंग-अंग अभिराम ।। -सूरसारावली, पृ० 4
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