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दृष्टि से समवायांग का रचना काल 557 से 527 के मध्य में है। स्पष्ट है कि चौबीस तीर्थंकरों का उल्लेख चौबीस बुद्ध और चौबीस अवतारों की अपेक्षा बहुत ही प्राचीन है। जब जैनों में चौबीस तीर्थंकरों की महिमा और गरिमा अत्यधिक बढ़ गई तब संभव है बौद्धों ने और वैदिक परम्परा के विद्वानों ने अपनी-अपनी दृष्टि से बुद्ध और अवतारों की कल्पना की, पर जैनियों के तीर्थंकरों की तरह उनमें व्यवस्थित रूप नं आ सका। चौबीस तीर्थंकरों की जितनी सुव्यवस्थित सामग्री जैन ग्रन्थों में उपलब्ध होती है उतनी बौद्ध साहित्य में तथा वैदिक वाङ्मय में अवतारों की नहीं मिलती। जैन तीर्थंकर कोई भी पशु-पक्षी आदि नहीं हुए हैं, जबकि बौद्ध और वैदिक अवतारों में यह बात नहीं है।
अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने अनेक स्थलों पर यह कहा है कि “जो पूर्व तीर्थंकर पार्श्व ने कहा है वही मैं कह रहा हूँ।92 पर त्रिपिटक में बुद्ध ने कहीं भी यह नहीं कहा कि पूर्व बुद्धों ने यह कहा है जो मैं कह रहा हूँ"। पर वे सर्वत्र यही कहते हैं- “मैं ऐसा मानता हूँ।" इससे भी यह सिद्ध होता है कि बुद्ध के पूर्व बौद्धधर्म की कोई भी परम्परा नहीं थी; जबकि महावीर के पूर्व पार्श्वनाथ की परम्परा चल रही थी।
आदि तीर्थंकर ऋषभदेव
__चौबीस तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव हैं। उनके जीवनवृत्त का परिचय पाने के लिए आगम व आगमेतर साहित्य ही प्रबल प्रमाण है। जैनदृष्टि से भगवान ऋषभदेव वर्तमान अवसर्पिणीकाल के तृतीय आरे के उपसंहारकाल में हुए हैं। 84 चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर और ऋषभदेव के बीच का समय असंख्यात वर्ष का है।85 वैदिकदृष्टि से ऋषभदेव प्रथम सतयुग के अन्त में हुए हैं और राम व कृष्ण के अवतारों से पूर्व हुए हैं। जैनदृष्टि से आत्मविद्या के प्रथम पुरस्कर्ता भगवान ऋषभदेव हैं। वे प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर और प्रथम धर्मचक्रवर्ती थे।88 81 कितने ही विद्वान् वीर-निर्वाण संवत् 960 की रचना मानते हैं, पर वह लेखन का
समय है, रचना का नहीं। 82 व्याख्याप्रज्ञप्ति शo 5, उद्दे० 9, सू० 227
वही, श० 9, उद्दे० 32 83 मज्झिमनिकाय 56, अंगुत्तरनिकाय 84 (क) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (ख) कल्पसूत्र 85 कल्पसूत्र 86 जिनेन्द्रमत दर्पण, भाग 1, पृ० 10 87 धम्माणं कासवों मुहं,-उत्तराध्ययन 16, अध्ययन 25 88 उसहे णामं अरहा कोसलिए पढमराया, पढमजिणे, पढमकेवली पढमतित्थयरे पढमधममवतरचक्कवट्टी समुप्पज्जित्थे।
-जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति 2|30
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