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________________ 18 तीर्थंकर और अन्य मुक्त आत्माओं में अन्तर जैनधर्म का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि तीर्थकर और अन्य मुक्त होने वाली आत्माओं में आन्तरिक दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रभृति आत्मिक शक्तियाँ दोनों में समान होने के बावजूद भी तीर्थंकरों से कुछ बाह्य विशेषताएँ होती हैं जिनका वर्णन भगवान महावीर : एक अनुशीलन ग्रन्थ में 'तीर्थंकरों की विशेषता' शीर्षक में किया गया है। ये लोकोपाकारी सिद्धियाँ तीर्थंकरों में ही होती हैं। वे प्राय: तीर्थंकरों के समान धर्म-प्रचारक भी नहीं होते। वे स्वयं अपना विकास कर मुक्त हो जाते हैं किंतु जन-जन के अन्तर्मानस पर चिरस्थायी व अक्षुण्ण आध्यात्मिक प्रभाव तीर्थंकर जैसा नहीं जमा पाते। जैनधर्म ढाई द्वीप में पन्द्रह कर्म-भैमिक क्षेत्र मानता है। उनमें एक सौ सत्तर क्षेत्र ऐसे माने गये हैं जहाँ पर तीर्थंकर विचरते हैं। एक समय में एक क्षेत्र में सर्वज्ञ अनेक हो सकते हैं किन्तु तीर्थंकर एक समय में एक ही होते हैं। एक सौ सत्तर क्षेत्र तीर्थंकरों के विचरण-क्षेत्र हैं अत: एक साथ एक सौ सत्तर तीर्थंकर हो सकते हैं, इससे अधिक तीर्थंकर एक साथ नहीं होते। तीर्थंकर और अन्य मुक्त आत्माओं में जो यह अन्तर है वह देहधारी अवस्था में ही रहता है, देह-मुक्त अवस्था में नहीं। सिद्ध रूप में सब आत्माएँ एक समान हैं। चौबीस तीर्थंकर प्रस्तुत अवसर्पिणी काल में चौबीस तीर्थंकर हुए हैं। चौबीस तीर्थंकरों के सम्बन्ध में सबसे प्राचीन उल्लेख दृष्टिवाद के मूल प्रथमानुयोग में था पर आज वह अनुपलब्ध है।42 आज सबसे प्राचीन उल्लेख समवायांग,43 कल्पसूत्र,44 आवश्यक नियुक्ति,45 आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, आवश्यक हारिभद्रीयावृत्ति" और आवश्यकचूर्णित में मिलता है। इसके पश्चात् चउप्पन्न महापुरिसचरियं,” त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र, महापुराण, उत्तरपुराण। 42 (क) समवायाङ्ग सूत्र 147 (ख) नन्दीसूत्र, सूत्र 56, पृ० 151-152, पूज्य श्री हस्तीमल जी महाराज द्वारा सम्पादित 43 समवायाङ्ग. 24, 44 कल्पसूत्र-तीर्थंकर वर्णन 45 आवश्यक नियुक्ति वर्णन, 46 भाग 3, आगमोदय समिति 47 भाग 3, देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड, सूरत। 48 भाग 1-2 रतलाम 49 (क) आचार्य शीलांक रचित, (ख) चौप्पन्न महापुरुषोना चरितो-अनुवाद आ० हेमसागर जी 50 आचार्य हेमचन्द्र-प्र०, जैन धर्म सभा, भावनगर 51 आचार्य जिनसेन-भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी 52 आचार्य गुणभद्र-भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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