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चौबीस तीर्थंकर
मौलिक बुद्धि से उनके हल खोजना-उनका सहज धर्म होता चला गया। इस प्रकार मन से वे तटस्थ और निस्पृह थे। यौवन ने इस प्रकार न केवल तन अपितु मन के तेज को भी अभिवर्धित कर दिया था। उनका मनोबल एवं चिंतन धीरे-धीरे विकास की ओर अग्रसर होता रहा।
जीवन और जगत के सम्बन्ध में उनका प्रत्यक्ष ज्ञान और अनुभव ज्यों-ज्यों बढ़ने लगा वे उसकी विकारग्रस्तता से अधिकाधिक परिचित होते गए। उन्होंने देखा कि क्षत्रिय गण युद्ध में जो शौर्य पदर्शन करते हैं-वह भी स्वार्थ भी भावना के साथ होता है कि यदि खेत रह गए तो स्वर्ग की प्राप्ति होगी और विजयी हुए तो शत्रु की सम्पत्ति और कामिनियों पर हमारा अधिकार होगा ही। समाज में बेचारे निर्बल वर्ग, सबलों के लिए आखेट बने रहते हैं, यहाँ तक कि जिन पर इन असहायों की रक्षा का दायित्व है, वे स्वयं ही भक्षक बने हुए हैं। बाड़ ही खेतों को लील रही है। सर्वत्र लोभ, लिप्सा का अनंत प्रसार है। धर्म जो जीवन-चक्र की धुरी है-वह स्वयं ही विकृत हो रहा है और इसकी आड़ में धर्माधिकारीगण स्वार्थवश निरीह जनता को कुमार्गों पर धकेल रहे हैं। धर्म के नाम पर हिंसा और कर्मकाण्ड की कुत्सित विभीषिका ने अपना आसन जमा रखा है। सामाजिक न्याय और आर्थिक समता का कहीं दर्शन नहीं होता और असहायजनों की रक्षा और सुविधा के लिए किसी के मन में उत्साह नहीं है। वर्ग-भेद का भीषण रोग भी उन्होंने समाज में पाया जो पारस्परिक स्नेह, सौजन्य, सहानुभूति, हित-चिंतन आदि के स्थान पर घृणा, क्रोध, हिंसा, ईर्ष्या आदि दुर्गुणों को विकसित करता चला जा रहा है। इन दुर्दशाओं से वर्धमान का चित्त चीत्कार करने लगा था और भटकी हुई मानवता को सन्मार्ग पर लगाने के लिए वे प्रयत्नरत होने को सोचने लगे थे।
जीवन और जगत के ऐसे स्वरूप का अनुभव कर महावीर और अधिक चिंतनशील रहने लगे। उन्होंने निश्चय किया कि मैं ऐसे संसार से तटस्थ रहूँगा और उनकी गति बाहर के स्थान पर भीतर की ओर रहने लगी। वे अत्यन्त गम्भीर रहने लगे। मानव जाति को विकारमुक्त कर उसे सुख-शांति के वैभव से सम्पन्न करने का मार्ग खोजने की उत्कट प्ररेणा उनके मन में जागने लगी। फलत: भगवान आत्म-केन्द्रित रहने लगे और जगत से उदासीन हो गए। उनकी चिंतन-प्रवृत्ति सतत रूप से सशक्त होने लगी।, जो उनके लिए विरक्ति का पहला चरण बनी। वे गहन से गहनतर गांभीर्य धारण करते चले गए।
गृहस्थ-योगी
। श्रमण भगवान की इस तटस्थ और उदासीन दशा ने माता-पिता को चिन्ताग्रस्त कर दिया। उन्हें भय होने लगा कि कहीं पुत्र असमय ही वीतरागी न हो जाय और संकट को दूर करने के लिए वे भगवान का विवाह रचाने की योजना बनाने लगे। भगवान के योग्य वधू की खोज आरम्भ हुई। यह सारा उपक्रम देखकर महावीर तनिक विचित्र-सा अनुभव करने लगे। प्रारम्भ में तो उन्होंने परिणय-सूत्र- बन्धन के लिए अपनी स्पष्ट असहमति
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