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भगवान महावीर स्वामी
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व्यक्त कर दी, किन्तु उनके समक्ष एक समस्या और भी थी। वे अपने माता-पिता को रंचमात्र भीकष्ट नहीं पहुँचाना चाहते थे। वे जानते थे कि योग्य वधू का स्वागत करने के लिए माता का मन कितना लालायित और उत्साहित है? पिता अपने पुत्र को गृहस्थ रूप में देखने की कितनी तीव्र अभिलाषा रखते हैं? और यदि मैंने विवाह के लिए अनुमति न दी तो इनके ममतायुक्त कोमल मन को गम्भीर आघात पहुँचेगा। इस स्थिति को बचाने के लिए तो भगवान ने यह संकल्प तक ले रखा था कि मैं माता-पिता के जीवित रहते दीक्षा-ग्रहण नहीं करूँगा। फिर वे भला विवाह-प्रसंग को लेकर उन्हें कैसे कष्ट दे पाते! उन्होंने आत्म-चिन्तन के पश्चात् यही निर्णय लिया कि माता-पिता की अभिलाषा की पूर्ति और उनके आदेश का आदर करते हुए मैं अनिच्छा होते हुए भी विवाह कर लूँ। अपने ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धन के समक्ष अपने गुढ़ हृदय को उन्होंने खोल कर रख दिया। महावीर ने उन्हें बताया कि संसार की क्षणभंगुरता और असारता से मैं भली-भाँति परिचित हो गया हूँ और इसमें ग्रस्त होने का आत्मा पर जो कुप्रभाव होता है-उसे जानकर मैं सर्वथा अनासक्त हो गया हूँ। मात्र माता-पिता की प्रसन्नता के लिए मैं विवाहार्थ स्वीकृति दे रहा हूँ। निदान, परम गुणवती सुन्दरी यशोदा के साथ भगवान का परिणय-सम्बन्ध हुआ। यशोदा महासामन्त समरवीर की राजकुमारी थी और महावीर की प्रतिष्ठा और कुल-गौरव के सर्वथा योग्य थी। यशोदा और महावीर का सुखी दाम्पत्य-जीवन आरम्भ हुआ। यशोदा ने एक पुत्री को भी जन्म दिया जिसका नाम प्रियदर्शना रखा गया। मात्र बाह्य रूप से ही भगवान सांसारिक थे अन्यथा उनका मानस तो कभी का ही वैरागी हो गया था। विषयों के अपार सागर में वे निर्लिप्त भाव से विहार करते रहे। उनका मन तो शाश्वत आनन्द की खोज में सक्रिय रहा करता था।
गर्भस्थ अवस्था में भगवान ने संकल्प जो ग्रहण किया था (कि माता-पिता को मानसिक पीड़ा से मुक्त रखने के प्रयोजन से उनके जीवित रहते वे दीक्षा अंगीकार नहीं करेंगे)-उसके निर्वाह की साध ने ही उन्हें रोक रखा था। शरीर से ही दीक्षित होना शेष रह गया था, अन्यथा संसार नहीं तो भी संसार के प्रति रुचि को तो वे त्याग ही चुके थे।
इसी प्रकार 28 वर्ष की आयु व्यतीत हो गयी। उनका वैराग्य भाव परिपक्व होने लगा और माता-पिता का समाधिपूर्वक स्वर्गवास हो गया। आत्म-वचन के सुदृढ़ पालक भगवान महावीर के मनःसिन्धु में वैराग्य का ज्वार चढ़ आया। अब उन्होंने अपने मार्ग में किसी अवरोध की प्रतीति नहीं हो रही थी, किन्तु अभी एक और आदेश का निर्वाह उनके आज्ञा-पालक मन को पूरा करना था। वे अपने ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धन का अतिशय आदर किया करते थे। अब तो नन्दिवर्धन वर्धमान के लिए पिता के ही स्थान पर थे। नन्दिवर्धन भी उन्हें अतिशय स्नेह दिया करते थे। इधर भगवान ने दीक्षा ग्रहण करने का दृढ़ विचार कर लिया और उन्होंने मर्यादा के अनुरूप अपने अग्रज से तदर्थ अनुमति प्रदान करने की याचना की। इस समय मातृ-पितृविहीन हो जाने के कारण नन्दिवर्धन की दशा बड़ी करुणाजनक थी। वे स्वयं ही अनाश्रित-सा अनुभव कर रहे थे और अद्भुत विपन्नता का
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