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________________ भगवान महावीर स्वामी 137 वह आकाश में ऊपर से ऊपर को बढ़ता ही चला गया। इस माया को देखकर अन्य खिलाड़ी स्तंभित एवं भयभीत हो गए, किन्तु निर्भीक वर्धमान तनिक भी विचलित नहीं हुए उन्होंने इस मायावी पर एक ही मुष्टि प्रहार ऐसा किया कि उसकी देह संकुचित होने लगी और वर्धमान भूमि पर आ गए। यह अपरिचित खिलाड़ी भी वास्तव में वही देव था, जिसे पहली परीक्षा में भी वर्धमान के साहस में पूर्ण विश्वास नहीं हो पाया था। अब देवेन्द्र की उक्ति से सहमत होते हुए अपना छद्म वेश त्याग कर वह देव वास्तविक रूप में आया और भगवान से क्षमा-याचना करने लगा। ऐसे शक्ति, साहस और अभय के प्रतिरूप थे भगवान महावीर। बुद्धि वैभव के धनी तीर्थंकर स्वयं बुद्ध होते हैं और कहीं से उन्हें औपचारिक रूप से ज्ञान-प्राप्ति की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु लोक-प्रचलन के अनुसार उन्हें भी कलाचार्य की पाठशाला में विद्याध्ययनार्थ भेजा गया। गुरुजी बालक के बुद्धि-वैभव से बड़े प्रभावित थे। कभी-कभी तो वर्धमान की ऐसी-ऐसी जिज्ञासाएँ होतीं, जिनका समाधान वे खोज नहीं पाते। एक समय एक विप्र इस पाठशाला में आया और गुरुजी से एक के पश्चात् एक प्रश्न करने लगा। प्रश्न इतने जटिल थे कि आचार्य के पास उनका कोई उत्तर नहीं था। बड़ी विचित्र परिस्थिति उत्पन्न हो गई थी। बालक वर्धमान ने गुरुजी से सविनय अनुमति माँगी और विप्र के प्रत्येक प्रश्न का संतोषजनक उत्तर दे दिया। कलाचार्य ने स्वीकारोक्ति की कि वर्धमान परम बुद्धिशाली है-मेरा भी गुरु होने की योग्यता इसमें है। यह विप्रवेशधारी स्वयं इन्द्र था, जिसमें कलाचार्य से सहमत होते हुए अपना यह मन्तव्य प्रकट किया कि यह साधारण शिक्षा वर्धमान के लिए कोई महत्त्व नहीं रखती। ऐसे अनेक प्रसंग वर्धमान के जीवन में बाल्यावस्था में ही आए, जिनसे उनके अद्भुत बुद्धि- चमत्कार का परिचय मिलता था और भावी तीर्थंकर की बीज रूप में उपस्थिति का जिनसे आभास हुआ करता था। बालक वर्धमान का प्रत्येक कार्य विशिष्ट और उनके व्यक्तित्व की विचित्रता व असामान्यता का द्योतक हुआ करता था। चिन्तनशील युवक वर्धमान क्रमश: वर्धमान की जीवन-यात्रा के पड़ाव एक-एक कर बीतते रहे और तेजस्वी व्यक्तिव के साथ उन्होंने यौवन वय में पदार्पण किया। आकर्षक और मनभावनी मूरत थी वर्धमान भगवान की। उल्लास, उत्साह और आनन्द ही उनके जीवन के अन्य नाम थे। 30 वर्ष की आयु तक उन्होंने संसार के समस्त विषयों का उपभोग किया। किन्तु ज्ञातव्य यह है कि यह उनका मात्र बाह्य व्यवहार था, आत्मा की सहज अभिव्यक्ति नहीं। उनका आभ्यन्तरिक स्वरूप तो इससे सर्वथा भिन्न था। संसार के सुख- समुद्र में उनका तन ही निमग्न था, मन नहीं। 'चिन्तनशीलता' उनकी सहज प्रवृत्ति थी, जिसने उन्हें अन्तर्मुखी बना दिया था। जगत और जीवन की जटिल समस्याओं और प्रश्नों को समझना और अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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