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________________ 136 चौबीस तीर्थंकर शक्ति, शौर्य और पराक्रम से अनीति, अनाचार और दुर्जनता का विनाश कर सत्य, न्याय और नीति को प्रतिष्ठित करने में यथोचित योग दे सके। भगवान महावीर स्वामी के जीवन का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि वे वीरता की इस कसौटी से परे थे, बहुत आगे थे। अपार-अपार शक्ति और सामर्थ्य के स्वामी होते हुए भी, शांति, क्षमा, प्रेम आदि अन्य अमोघ अस्त्रों का ही प्रयोग कर विपक्षियों के हृदय को जीत लेने की भूमिका निभाने में वे अद्वितीय थे। अत: अहिंसा शक्ति से सम्पन्न भगवान 'वीर' नहीं अपितु महावीर थे और इस आशय में उन्होंने अपने इस नाम को चरितार्थ कर दिया था। बाल्य जीवन क्षत्रियकुण्ड उस काल में बड़ा सुख-सम्पन्न और वैभवशाली राज्य था और भगवान के प्रादुर्भाव से इसमें और भी चार चाँद लग गए थे। परम ऐश्वर्यशाली राजपरिवार के सुख-वैभव और माता-पिता के सघन ममत्व के वातावरण में कुमार वर्धमान पालित-पोषित होने लगे। शिशु तन और मन से उत्तरोत्तर विकसित होने लगा और भगवान के जन्मजात गुण प्रतिभा, विवेक, तेज, ओज, धैर्य, शौर्य आदि में आयु के साथ-साथ सतत रूप से अभिवृद्धि होने लगी। बाल्यावस्थ से ही असाधारण बुद्धि और अद्भुत साहसिकता का परिचय भगवान के कार्य-कलापों से मिला करता था। साहस एवं निर्भीकता भगवान के जीवन की एक घटना तब की है जब उनकी आयु मात्र 8 वर्ष की थी। वे अपने बाल-सखाओं के साथ वृक्ष की शाखाओं में उछल-कूद के एक खेल में मग्न थे। इस वृक्ष पर एक भयानक नाग लिपटा हुआ था। जब बालकों का ध्यान उसकी ओर गया तो उनकी साँस ही थम गई। भयातुर बालकों में भगदड़ मच गई। उस समय वर्धमान ने सभी को अभय दिया और साहस के साथ उस विषधर को उठा कर एक ओर रख दिया। यह नाग साधारण सर्प नहीं था। बालक वर्धमान के साहस और शक्ति की गाथाओं का गान तो सर्वत्र होने ही लगा था। एक बार स्वर्ग में देव राज इन्द्र ने इनकी इस विषय में प्रशंसा की थी और एक देव ने इन्द्र के कथन में अविश्वास प्रकट करते हुए स्वयं परीक्षा करके तुष्ट होने की ठान ली थी। वही देव नाग के वेश में प्रभु की निर्भीकता एवं साहस की परख करने आया था। इसी प्रकार वर्धमान अन्य साथियों के साथ 'तनदूषक' नामक खेल खेल रहे थे, जिसमें क्रम- क्रम से दो बालक स्थल. से किसी लक्ष्य तक दौड़ते हैं। इसमें पराजित होने वाला खिलाड़ी विजयी खिलाड़ी को कन्धे पर बिठाकर लौटता है। एक अपरिचित बालक के साथ वधर्ममान का युगम बना। प्रतिस्पर्धा में वर्धमान जीते और नियमानुसार ज्योंही वे पराजित बालक के कंधे पर चढ़े, कि वह खिलाड़ी अपने देह के आकार को बढ़ाने लगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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