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________________ भगवान पार्श्वनाथ गया । कम्पित कर देने वाली मेघ गर्जनाओं से दिशाएँ काँपने लगीं, चपला की चमक-दमक जैसे प्रलय के आगमन का संकेत करने लगी। तीव्र झंझावात भी सक्रिय हो गया, जिसकी चपेट में आकर विशालकाय वृक्ष भी ध्वस्त होने लगे। इन विपरीत और भयंकर परिस्थितियों में भी भगवान अचल बने रहे। तब मूसलाधार वर्षा होने लगी। जलधाराएँ मेघ रूपी धनुष से निकले बाणों की भाँति प्रहार करने लगा। देखते ही देखते सृष्टि संहारक जल-प्लावन - सा दृश्य उपस्थित हो गया। सारा आश्रम जलमग्न हो गया। धरती पर पानी की गहराई उत्तरोत्तर बढ़ती गयी। भगवान घुटनों तक जल मग्न हुए और मेघमाली की आँखें उधर ही गड़ गयी । ज्यों-ज्यों जल-स्तर बढ़ता जाता, वह अधिक से अधिक प्रसन्न होता जा रहा था। जब भगवान की नासिका को जल स्पर्श करने लगा तो अपनी योजना की सफलता की सन्निकटता अनुभव कर वह दर्पपूर्ण अट्टहास कर उठा । प्रभु थे कि अब भी अपने अटल ध्यान में मग्न अविचलित खड़े थे। - 127 नागकुमारों के इन्द्र धरणेन्द्र ने भगवान के इस रौद्र उपसर्ग को देखा और उसके मन में मेघमाली के प्रति तीव्र भर्त्सना का भाव घर कर गया। वह तुरन्त भगवान की सेवा में उपस्थित हुआ। उसने प्रभु के चरणों के नीचे स्वर्ण कमल का आसन रच दिया और अपने सप्त फनों का छत्र धारण कराकर भगवान की इस भीषण वर्षा से रक्षा की। जल स्तर ज्यों-ज्यों ऊपर उठता जाता था, भगवान का आसन भी ऊपर उठता जाता अतः यह जल उनकी कोई हानि नहीं कर सका। वे इस उपसर्ग की घोर यातना में भी अपनी साधना में दृढ़ बने रहे। मेघमाली का यह दाँव भी चुक गया। क्रोध तथा प्रतिशोध-पूर्ति में असफलता की लज्जा के कारण वह क्षुब्ध भी था और किंकर्तव्यविमूढ़ भी । उसकी समस्त माया विफल हो रही थी। Jain Education International धरणेन्द्र ने प्रताड़ना देते हुए मेघमाली से कहा कि जगत के कल्याण का मार्ग खोजने वाले भगवान के मार्ग में बाधाएँ उपस्थित करके तू कितना भयंकर दुष्कर्म कर रहा है - तुझे यह कदाचित् पूर्णतः मालूम नहीं है । अब भी तुझे चाहिए कि तू भगवान की शरण आजा और अपने पापों की क्षमा करवाले। यदि तूने अब भी अपनी माया को नहीं सँभाला तो तू सर्वथा अक्षम्य हो जायगा। भगवान के अपराधी का भला कभी कल्याण हुआ है ? धरणेन्द्र का उक्त प्रयत्न प्रभावी हुआ और असुर मेघमाली के मन में अपनी करनी के प्रति पश्चात्ताप अंकुरित हुआ । उसे बोध उत्पन्न हुआ और अपने दुष्कर्म के कारण उसे आत्म - ग्लानि होने लगी। वह सोचने लगा कि अपनी समग्र शक्ति को प्रयुक्त करके भी मैं अपनी योजना में सफल न हो सका, व्यर्थ ही गयी मेरी सारी माया । इन भयंकर उपद्रवों का कुछ भी प्रभाव भगवान पर नहीं हुआ। वे ध्यानलीन भी रहे और शांत भी। अपार शक्ति के स्वामी होते हुए भी मेरे प्रति उनकी मुखमुद्रा में क्रोध या रुष्टता का रंग भी नहीं आ पाया। भगवान की इस क्षमाशीलता और धैर्य एवं धरणेन्द्र की प्रेरणा से मेघमाली का हृदय परिवर्तन हुआ। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि भगवान के चरणों में आश्रय लेने में ही अब मेरा कल्याण निहित है। वह दम्भी अब सर्वथा सरल हो गया था। पछतावे के भाव ने उसे बड़ा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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