SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 126 दीक्षाग्रहण : केवलज्ञान दीक्षाभिषेक सम्पन्न हो जाने पर पार्श्वकुमार ने निष्क्रमण किया। समस्त वैभव और स्वजन - परिजनों को त्यागकर वे विशाला नाम की शिविका में आरूढ़ हो आश्रम पद उद्यान में पधारे। वहाँ स्वतः ही उन्होंने समस्त वस्त्राभूषणों को अपने तन से पृथक् कर दिया और 300 अन्य राजाओं के साथ अष्टम तप में भगवान ने दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा के तुरन्त पश्चात ही उन्हें मनः पर्यवज्ञान की प्राप्ति हो गयी। वह पौष कृष्णा एकादशी के अनुराधा नक्षत्र का शुभ योग था । आगामी दिवस को कोष्कट ग्राम में धन्य नाम के एक गृहस्थ के यहाँ भगवान प्रथम पारणा हुआ। इसके पश्चात् भगवान ने अपने अजस्त्र विहार पर कोकट ग्राम से प्रस्थान किया। अभिग्रह चौबीस तीर्थंकर दीक्षोपरांत भगवान ने यह अभिग्रह किया कि अपने साधना समय अर्थात् 83 दिन की छद्मस्थचर्या की अवधि में मैं शरीर से ममता हटाकर सर्वथा समाधि अवस्था में रहूँगा । इस साधना काल में देव - मनुज, पशु-पक्षियों की ओर से जो भी उपसर्ग उत्पन्न होंगे उनको अचंचल भाव से सहन करूँगा । भगवान अपने अभिग्रह के अनुरूप शिवपुरी नगर में पधारे और कौशाम्ब वन में ध्यानलीन होकर खड़े हो गए। उपसर्ग अपने सतत और मुक्त विहार के दौरान भगवान एक बार एक तापस- आश्रम के समीप पहुँचे ही थे कि संध्या हो गयी । अतः भगवान ने अग्रसर होने का विचार स्थगित कर दिया। वे एक वट वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग कर खड़े हो गए- ध्यानस्थ हो गए। इस समय कमठ का जीव मेघमाली असुर के रूप में था। उसने अपने ज्ञान से ज्ञात कर लिया कि भगवान के साथ उसका पूर्वभव का वैमनस्य है। भगवान ध्यानस्थ हैं। वह इस कोमल परिस्थिति का लाभ उठाने के लिए प्रेरित हो उठा। प्रतिशोध का भाव उसके मन में कसमसाने लगा। कमठ ने मायाचार का आश्रय लिया। उसने सिंह, भालू, हाथी आदि विभिन्न रूप धारण कर भगवान को भयभीत करने का और उनके ध्यान को भंग करने का भरसक प्रयत्न किया। इनका तनिक भी प्रभाव नहीं हुआ, वे यथावत ध्यानलीन, शांत और अविचलित ही बने रहे। अपनी इस असफलता पर मेघमाली बड़ा कुण्ठित हो गया । प्रतिक्रियास्वरूप वह और अधिक भयंकर बाधा उपस्थित करने की योजना सोचने लगा । उसने तुरंत एक निण्रय कर लिया और सारा गगनमण्डल घनघोर मेघों से आच्छादित हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy