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________________ भगवान पार्श्वनाथ 125 विनाश मैं उपयुक्त नहीं मानता हूँ। राजकुमारी की माँग कर तुमने घोर अनुचित कार्य किया है। यदि अब भी तुम अपने इस अपराध के लिए क्षमायाचना करने को तत्पर हो, तो युद्ध टल सकता है। युद्ध होने पर तुम्हारा और तुम्हारी शक्ति का चिन्ह भी शेष नहीं रहेगा। उन्होंने यवन राज को ललकारा कि अब भी अगर तुम युद्ध चाहते हो तो उठाओ शस्त्र। यवनराज के तो छक्के ही छूट गए। उसने शस्त्र झल दिए और पीपल के पत्ते की तरह काँपते हुए क्षमायाचना करने लगा। उसका सारा गर्व तहस-नहस हो गया। कुमार ने यवनराज और कुशस्थल-नरेश महाराज प्रसेनजित के मध्य मित्रता का सम्बन्ध स्थापित करा दिया और संकट के मेघ छितर कर अदृश्य हो गए। राजकुमारी का भाग्याकाश भी स्वच्छ और निरभ्र हो गया। महाराज प्रसेनजित तो अतिशय आभारी थे ही। उन्होंने समस्त राज्य की ओर से कुमार के प्रति धन्यवाद करते हुए उनका अभिनंदन किया। उन्होंने राजकुमार से अपनी कन्या प्रभावती के साथ पाणिग्रहण का भी प्रबल आग्रह किया। राजकुमारी के दृढ़ प्रेम से अवगत होकर पार्श्वकुमार विचित्र समस्या में ग्रस्त हो गए। वे कुशस्थल की सुरक्षा हेतु आए थे; विवाह के लिए नहीं। इस नये कार्य के लिए पिता की अनुमति अपेक्षित थी और कुमार ने इसी आशय का उत्तर दिया। महाराजा प्रसेनजित अपनी पुत्री के साथ वाराणसी पहुंचे और उन्होंने महाराजा अश्वसेन से आग्रहपूर्वक निवेदन किया। उस समय कुमार की भव्य सफलता के उपलक्ष में राजधानी में उल्लास के साथ समारोह मनाए जा रहे थे। यद्यपि कुमार, जो मनसे में विरक्त थे, विवाह के चक्र में पड़ना नहीं चाहते थे, किन्तु अपने पिता के आदेश का पालन करते हुए उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी और समारोहों में एक नवीन आकर्षण आ गया। अनुपम उत्साह के साथ राजकुमार पार्श्वकुमार और राजकुमारी प्रभावती का परिणयोत्सव सम्पन्न हुआ। अब पार्श्वकुमार के जीवन में सर्वत्र सरसता और आनंद बिखरा पड़ा था। यौवन और रूप, श्रृंगार और प्रेम सुख-सरिताएँ प्रवाहित करने लगे। प्रभावती का निर्मल अनुराग उन्हें प्राप्त था, उनका मन इन सांसारिक विषयों में नहीं रम पाया। भौतिक सुखों की कामना तो उन्हें कभी रही ही नहीं। ज्यों-ज्यों विषयों का विस्तार होता गया उनका मन त्यों ही त्यों विराग की ओर बढ़ता गया और अंतत: मात्र 30 वर्ष की अवस्था में उन्होंने संसार को त्याग देने का अपना संकल्प व्यक्त भी कर दिया। तब तक उन्हें यह अनुभव भी होने लग गया था कि उनके भोग फलदायी कर्मों की समाप्ति अब समीप ही है और अब उन्हें आत्म-कल्याण में प्रवृत्त होना चाहिए। तभी लोकांतिक देवों ने धर्मतीर्थ के प्रवर्तन की प्रार्थना की। कुमार पार्श्व वर्षीदान में लग गये। वे एक वर्ष तक दान देते रहे और तब उनका दीक्षाभिषेक हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003143
Book TitleChobis Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherUniversity of Delhi
Publication Year2002
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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